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तत्त्वार्थसूत्र का पूरक ग्रन्थ : जैन सिद्धान्त-दीपिका : २५ उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान का विषय समस्त द्रव्यों को एवं उनकी असमस्त पर्यायों को बताया है। यदि ज्ञान पर्याय को ही जानता है तो वह द्रव्य को किस प्रकार जान सकेगा? ___(ii) ईहा- अमुकेन भाव्यमिति प्रत्यय ईहा। (दीपिका २. १३) अमुक होना चाहिए, इस प्रकार के प्रत्यय को ईहा कहा जाता है। ईहा का यह लक्षण महत्त्वपूर्ण है। अनेक स्थलों पर ईहा को विशेष आकांक्षा, जिज्ञासा, चेष्टा आदि शब्दों से कहा गया है, जो समीचीन प्रतीत नहीं होता। (iii) अवाय- अमुक एवेत्यवायः। (दीपिका २. १४)
अमुक ही है, ऐसा निर्णय अवाय है। (iv) धारणा- तस्यावस्थितिधारणा। (दीपिका २. २५)
अवाय रूप निर्णयात्मक ज्ञान की अवस्थिति धारणा है। ४. जैन सिद्धान्त-दीपिका में अश्रुत निश्रित मतिज्ञान के रूप में वर्णित औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी नामक चार बद्धियों को विशेष महत्त्व देते हए उनके पृथक्रूपेण लक्षण दिए गए हैं। तत्त्वार्थसूत्र एवं भाष्य में चारों बुद्धियों के सम्बन्ध में कोई वर्णन नहीं है। दीपिका में प्रदत्त लक्षण इस प्रकार हैं
(i) औत्पत्तिकी- अदृष्टाश्रुतार्थग्राहिणी औत्पत्तिकी। (दीपिका २. १७) अदृष्ट एवं अश्रुत अर्थ के सम्बन्ध में तत्काल ज्ञान कराने वाली बुद्धि औत्पत्तिकी है। इसे प्रतिभा एवं प्रातिभ ज्ञान भी कहा गया है।
(ii) वैनयिकी- विनयरामुत्था वैनयिकी। (दीपिका २. १८) विनय से उत्पन्न बुद्धि वैनयिकी है। गुरु की शुश्रूषा अथवा ज्ञान और ज्ञानों के प्रति विनम्रभाव को आचार्यश्री ने विनय कहा है। (iii) कार्मिकी- कर्मसमुत्था कार्मिकी। (दीपिका २. १९)
कर्म अर्थात् अभ्यास से उत्पन्न कार्मिकी है। (iv) पारिणामिकी- परिणामजनिता पारिणामिकी। (दीपिका २. २०)
परिणाम से उन्पन्न होनेवाली बुद्धि पारिणामिकी है। आचार्यश्री ने वयः परिणति को परिणाम कहा है।
५. तत्त्वार्थसूत्र में अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा के बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिश्रित, असंदिग्ध और ध्रुव तथा इनके विपरीत अल्प, अल्पविध,
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