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२६ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६
अक्षिप्र, निश्रित, संदिग्ध और अध्रुव के रूप में १२-१२ प्रकार निरूपित हैं, (तत्त्वार्थसूत्र १. १६) जबकि जैन सिद्धान्त-दीपिका में इन्हें छोड़ दिया गया है।
६.आचार्य श्री तुलसी जी ने जातिस्मरणज्ञान को मतिज्ञान का ही एक भेद प्रतिपादित करने हेतु सूत्र निर्माण किया है- जातिस्मृतिरपि मतेर्भेदः (२. २१)।
७.कर्मग्रन्थ आदि के आधार पर जैन सिद्धान्त-दीपिका में श्रुतज्ञान के १४ भेद प्रतिपादित हैं- १. अक्षरश्रुत २. अनक्षरश्रुत ३. संज्ञिश्रुत ४. असंज्ञिश्रुत ५. सम्यक् श्रुत ६. मिथ्याश्रुत ७. सादिश्रुत ८. अनादिश्रुत ९. सपर्यवसितश्रुत १०.अपर्यवसितश्रुत ११. गमिकश्रुत १२. अगमिक श्रुत १३. अङ्गप्रविष्टश्रुत एवं अनङ्गप्रविष्टश्रुत। तत्त्वार्थसूत्र में श्रुतज्ञान के अंगप्रविष्ट एवं अनंगप्रविष्ट भेद ही निर्दिष्ट हैं तथा अनंगप्रविष्ट (अंगबाह्यय) के अनेक एवं अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञान के आचारांग आदि १२ भेद किए गए हैं- श्रुतं मतिपूर्वं यनेकद्वादशभेदम् । (तत्त्वार्थसूत्र १. २०).
८. मन:पर्याय ज्ञान के ऋजुमति एवं विपुलमति प्रकारों के भेद तत्त्वार्थसूत्र में दो आधारों पर प्रतिपादित हैं- विशुद्ध और अप्रतिपात। 'विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेष:- १. २५' ऋजुमति मन:पर्याय ज्ञान की अपेक्षा विपुलमति मनःपर्याय ज्ञान अधिक विशुद्ध होता है तथा ऋजुमति मन:पर्याय ज्ञान एक बार होने के पश्चात् नष्ट भी हो सकता है जबकि विपुलमति मन:पर्याय ज्ञान केवल ज्ञान होने तक बना रहता है। वह एक बार होने के पश्चात् नष्ट नहीं होता। जैन सिद्धान्तदीपिका में मनःपर्याय ज्ञान के इन दोनों भेदों को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि सामान्य रूप से मनोद्रव्य को ग्रहण करने वाला ज्ञान ऋजुमति एवं उसकी विशेष पर्यायों को ग्रहण करने वाला ज्ञान विपुलमति कहलाता है। इसमें विशुद्धि की अधिकता का लक्षण तो फलित हो जाता है, किन्तु ‘अप्रतिपात' लक्षण छूट गया है।
९. तत्त्वार्थसूत्र में पाँच ज्ञानों में से प्रथम दो ज्ञानों को परोक्ष प्रमाण तथा अन्तिम तीन ज्ञानों को प्रत्यक्ष प्रमाण में विभक्त कर प्रमाण मीमांसा का व्यवस्थित निरूपण किया गया है, जबकि जैन सिद्धान्त-दीपिका के दशमप्रकाश में प्रमाणलक्षण के अतिरिक्त कोई चर्चा नहीं की गई है।
१०. जैन सिद्धान्त-दीपिका में नय का लक्षण (अनिराकृतेतरांशो वस्त्वंशग्राही प्रतिपत्तुरभिप्रायो नयः, १०.३) तो प्राप्त है, किन्तु उसके भेदों का कोई उल्लेख नहीं है। तत्त्वार्थसूत्र में नय के भेदों का कथन (सूत्र १. ३४-३५) है, लक्षण का नहीं।
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