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[ २४ ] भट्टारकजी श्री जगत्कोति तत्पट्र भट्टारक श्री...............--द्रकीतिजी प्राचार्यजी श्री कनककीतिजी तत् शिष्य पं० रायमल सत् शिष्य पं. ......"दजी तत् शिष्य पं० वृन्दावनेन सुपठनार्थ लिखापितम् । लिसि..... ........ ।
माताजी की अभीक्ष्ण ज्ञानाराधना और उसके फल स्वरूप प्रकट हुए क्षयोपशम के विषय में क्या लिखू? अल्पवय में प्राप्त वैधव्य का अपार दुःख सहन करते हुए भी इन्होंने जो वैदुष्य प्राप्त किया है वह साधारण महिला के साहस की बात नहीं है । वैधव्य प्राप्त होते ही तत्काल जो साधन जुटाये जा सके उनका इन्होंने पूर्ण उपयोग किया। ये सागर के महिलाश्रम में पढ़ती थीं मैं धर्म शास्त्र और संस्कृत का अध्ययन कराने प्रातःकाल ५ बजे जाता था। एक दिन गृह प्रबन्धिका ने मुझसे कहा कि रात में निश्चित समय के बाद आश्रम की ओर से मिलने वाली लाईट की सुविधा जब बन्द हो जाती है तब ये खाने के घृत का दीपक जलाकर चुपचाप पढ़ती रहती हैं और भोजन घृत हीन कर लेती हैं । गृह प्रबन्धिका के मुख से इनके अध्ययन शीलता की प्रशंसा सुन जहां प्रसन्नता हुई वहां अपार वेदना भो हुई । प्रस्तावना की यह पक्तियां लिखते समय वह प्रकरण स्मृति में आ गया प्रोर नेत्र सजल हो गये। सगा, कि जिसकी इतनी अभिरुचि है अध्ययन में, वह अवश्य ही होनहार है । पाश्रम में रहकर इन्होंने शास्त्री कक्षा तक पाठयक्रम पूरा किया और हिन्दी साहित्य सम्मेलन से साहित्य रत्न की उपाधि प्राप्त की। जबलपुर से प्रशिक्षित (ट्रेण्ड) होकर महिलाधम में अध्यापन शुरू किया तथा साधारण अध्यापिका के बाद प्रधानाध्यापिका और तदनन्तर कार्य छोड़कर अधिष्ठात्री पद को प्राप्त किया।
संभवतः सन् १९६३ में सागर मैं प्राचार्य श्री धर्मसागरजी, सन्मतिसागरजी और पदमसागरजी का चातुर्मास हुा । श्री सन्मतिसागरजी के सम्बोधन से इनका हृदय विरक्ति की पोर आकृष्ट हुआ। फलस्वरूप इन्होंने सप्तम प्रतिमा धारण की और आगे चल कर पपौरा के चातुर्मास में प्राचार्य शिवसागरजी के पादमूल में प्रायिका दीक्षा ली। संघस्थ प्राचार्यकल्प श्रुतसागरजी ने इनका करणानुयोग में प्रवेश कराया और श्री अजितसागरजी महाराज ने संस्कृत भाषा का परिज्ञान कराया। निर्द्वन्द्व होकर इन्होंने धवलसिद्धान्त के सब भागों का स्वाध्याय कर जब मुझे कोटा के चातुर्मास में स्वनिर्मित अनेक संदृष्टियां और चार्ट दिखलाये तब मुझे इनके ज्ञान विकास पर बड़ा प्राश्चर्य हुआ । यही नहीं त्रिलोकसार की टीका लिखकर प्रस्तावना लेख के लिये जब मेरे पास मुद्रित फार्म भेजे तब मुझे लगा कि यह इनके तपश्चरण का ही प्रभाव है कि इनके ज्ञान में प्राश्चर्यजनक वृद्धि हो रही है । वस्तुतः परमार्थ भी यही है कि द्वादशाङ्ग का जितना विस्तार हम सुनते हैं वह सब गुरु मुख से नहीं पढ़ा जा सकता । तपश्चर्या के प्रभाव से स्वयं ही ज्ञानावरण का ऐसा विशाल क्षयोपशम हो जाता है कि जिससे प्रङ्ग पूर्व का भी विस्तृत ज्ञान अपने पाप प्रकट हो जाता है । श्रुतकेवली बनने के लिये निम्रन्थ मुद्रा के साथ विशिष्ट तपश्चरण का होना भी आवश्यक रहता है।