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लेकर यवनलोग दिल्ली आ गये। वहाँ काफिरों की प्रतिमा समझकर मस्जिद की सीढ़ियों पर रख दिया । एक समय मोहम्मद तुगलक जिनप्रभसूरि के कन्धों पर हाथ रखकर मस्जिद में प्रवेश करने लगा । वहाँ सीढ़ियों पर भगवान् महावीर की प्रतिमा को देखकर जिनप्रभसूरि एक ओर खड़े रह गये ।
उसी समय सुलतान ने कहा- 'हे मित्र ! तुमने ऐसा क्यों किया ?' आचार्य - 'हमारे देवाधिदेव हैं, उनके ऊपर हम कैसे चल सकते हैं?' सुलतान - 'यह बूत क्या जानता है, कुछ भी नहीं । ' आचार्य 'यह देव सत्यवादी और ज्ञानी है । '
सुलतान - 'यदि तुम्हारा देव ज्ञानी है तो कुछ जुबान से बोले ।'
आचार्य - ‘जब इस देव को पूजनीय स्थान पर विराजमान कर पूजते हैं, मानते हैं और पूछते हैं तभी वे उत्तर देते हैं । '
आचार्य के कहने पर सुलतान ने नया मन्दिर बनवाया । उस मन्दिर में विराजमान करने के लिए उस प्रतिमा को उस स्थान से उठाने लगे किन्तु प्रतिमा उस स्थान से किंचित् भी चलायमान नहीं हुई । सुलतान ने आचार्य की ओर देखा । आचार्य ने कहा- 'तुम स्वयं हाथ से उठाओगे तो प्रतिमा उठेगी।' सुलतान ने वैसा ही किया । वहाँ से प्रतिमा को लेकर आए और नूतन जिन मन्दिर में उसकी स्थापना की। सुलतान ने श्रेष्ठ पूजा सामग्री से उस देव - मूर्ति की पूजा की। मुख पर मुख कोश बाँधकर सुलतान ने भूतकाल में हुए अपने वंश के सम्बन्ध में प्रश्न किये । देवाधिष्ठित मूर्ति ने उन सबके सटीक उत्तर दिये । सुलतान अत्यन्त प्रसन्न हुआ और विशेष रूप से महावीर मूर्ति की पूजा करने लगा। इसी कारण दिल्ली में स्थित होने पर भी यह कान्हड़ महावीर कहलाए ।
वृक्ष का साथ में चलना.
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एक समय सुलतान ग्रीष्म ऋतु में नगर के बाहर बड़ के वृक्ष नीचे बैठे थे। छायादार बड़ को देखकर सुलतान ने जिनप्रभसूरि से कहा
शुभशीलशतक
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