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जहाजों से माल उतारा, क्रय-विक्रय करने लगा। उस समुद्र के किनारे पर ऐसे अनेक भण्डार थे ।
एक समय दो भण्डारों के बीच में एक बहुत बड़ी शिला निकली। उसको बाहर निकाल कर एक स्थान पर रख दिया। उस शिला पर दो व्यापारी बैठ कर वस्तुओं का भाव-ताव करने लगे । उन दोनों में विवाद उत्पन्न हो गया। एक ने कहा कि, जिस शिला पर बैठे हो, वह मेरी है। दूसरे ने कहा कि, मेरी है । विवाद बढ़ता गया और विवाद के निपटारे के लिए दोनों व्यापारी राजा के पास में गये। उस शिला की बोली लगने लगी। दूसरे व्यापारी ने ३००० रु० की बोली लगाई। जगडू सेठ ने अधिक बोली लगाकर उस शिला को अपने कब्जे में कर लिया और उसको अपने जहाज में रख दिया, वापस लौटते हुए भद्रेश्वर नगर के किनारे पहुँचे ।
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उस समय एक पुरुष जगडू सेठ के पास पहुँचा और इधर-उधर की बात करने के उसने कहा पश्चात् आप बहुत धन और माल खरीद कर लाये हैं, सुना है कि एक बहुत बड़ी शिला भी खरीद कर लाए हो। वह तो तुम्हारे घर को ही भर देगी ।' उसके मजाकिया लहजे को समझकर जगडू ने कहा- 'व्यापारी व्यापार में सभी प्रकार की वस्तुओं को श्रेष्ठ समझकर खरीद करता है । व्यापारी का जैसा भाग्य होता है, वैसे ही वह वस्तु खरीदता है और उसका लाभ भी प्राप्त करता है । इसमें विचार न करें तो अच्छा है । '
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उसके पश्चात् जगडू समुद्र के किनारे गया और उस शिला को अपने घर पर ले आया और कहा 'कर्म की गति के आगे हँसने अथवा रोने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। मैं इस शिला का महत्त्व समझता हूँ। ऐसा कहते हुए उस शिला को घर के बीच में रखवा दिया।'
एक दिन उस शिला पर बैठे हुए जगडू सेठ ने विचार किया अपनी समृद्धि का दान करते हुए मैं पृथ्वी के समस्त लोगों को सुखी कर दूँ ।' एक दिन वह गुरु की सेवा में पहुँचा और उस पत्थर के सम्बन्ध में सारी घटना उनको सुनाई और पूछा - 'यह शिला मुझे लाभदायक है या नहीं ? " ने उत्तर दिया- 'शिला के मध्य में अपार सम्पत्ति है । '
गुरु
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शुभशीलशतक
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