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५०. व्यंग का प्रभाव.
पद्मपुर में लक्ष्मीधर नाम का राजा राज्य करता था। उसके अनेक मन्त्री थे। वह राजा याचकों को दिल खोलकर दान देता था। एक समय मन्त्रियों ने राजा से निवेदन किया - हे राजन्! इस प्रकार मुक्त-हस्त से दान देने पर राज्य भण्डार खाली हो जायेगा।
यथा तथा प्रजाः सर्वाः प्रपीड्य विभवश्चिरम्। मेलितः किं मुधेदानीं व्ययतेऽर्थिप्रदानतः॥
अर्थात् - हे राजन्! येन-केन प्रकारेण बहुत काल तक प्रजा का उत्पीडन करके जो आपने कोश को समृद्ध किया है, वह याचकों को दान देकर क्यों बरबाद कर रहे हैं?
मन्त्रियों की बात राजा के समझ में आई और राजा ने उत्तर दिया - 'जो पण्डित विशिष्ट श्लोक रचना के द्वारा मेरा मनोरंजन करेगा, उसी को मैं दान दूंगा, अन्य किसी को नहीं।' राजा के इस निर्णय के पश्चात् अनेक विद्वान् कवियों ने श्रेष्ठ काव्यों की रचना कर राजा को प्रसन्न करना चाहा, पर राजा प्रसन्न नहीं हुआ।
इस प्रकार दान-प्रथा बन्द होने पर किसी कवि ने प्रातः काल के समय राजा को जाकर यह पद्य सुनाया :
उत्तिष्ठ नृपशार्दूल! मुखं प्रक्षालयस्व टः। यदा भाषयते (?) कुर्क-स्तदा रात्रिर्विभावरी॥
अर्थात् - हे नृपशार्दूल! टः हो चुका है अतः दन्तधावन स्नानादि करें। जब कुर्क बोलता है तब रात्रि विलय हो जाती है।
यह सुनकर राजा बोला - मुखादि का प्रक्षालन करो, इसमें ट: अक्षर निरर्थक प्रतीत होता है । कवि ने कहा - यहाँ कुर्क शब्द का जो ट विद्यमान है, अतः यह निरर्थक नहीं है। इस प्रकार शब्द-लक्षणा से राजा को उसने प्रसन्न किया और विपुल दान प्राप्त किया।
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शुभशीलशतक
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