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तब देवरूपधारी अतिथि ने कहा - 'हे सेठ! पुत्रहीन को मैं स्वर्ग प्रदान करने में समर्थ नहीं हूँ।' यह सुनकर सेठ खिन्न मानस हो गया। उसी समय मायावी अतिथि ने अपना देवस्वरूप प्रकट किया। पुत्र को जीवित किया। तत्पश्चात् वह सेठ प्रचुरता से अन्न-दान देने लगा। ८३. मारवी (मरुदेशीय) दुर्गत का सर्वस्वार्पण.
एक समय मन्त्री वाग्भट्ट (मंत्री उदयन का पुत्र) ने शत्रुञ्जय तीर्थ के उद्धार के लिए टीप हेतु समस्त सेठियों और व्यवहारियों की बैठक बुलाई। बैठक में सब लोगों ने अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार टीप में रकम भर दी। उस समय मारवाड़ देश का रहने वाला दुर्गत नाम का एक गरीब भी यात्रा करने के लिए शत्रुजय तीर्थ पर आया था और वह भी उस बैठक में सम्मिलित था। जब सब लोगों ने टीप भर दी। उस समय उस दुर्गत ने भी उसके पास जो पाँच द्रमक (सिक्के) शेष थे, वे मन्त्री वाग्भट्ट को अर्पित किये।
मन्त्री ने उस टीप में सबसे ऊपर उसका नाम लिख दिया। इससे समस्त श्रेष्ठिगण और व्यवहारी रुष्ट हुए और कहने लगे - हे मन्त्रीराज! आप यह अन्याय कैसे कर सकते हैं? हमने इस टीप में लाखों रुपये लिखे हैं किन्तु आपने ५ रुपये देने वाले का नाम हमारे नाम के ऊपर लिख दिया!
इसके उत्तर में मन्त्री वाग्भट्ट ने कहा - हे सेठ लोगों! इस दुर्गत के पास जो कुछ था, वह अर्पण कर दिया। आप लोगों ने अपने वैभव का शतांश भी नहीं लिखाया है, यदि आप लोग भी सर्वस्व अर्पण करते हों तो मैं इस टीपं में सबसे ऊपर आपका नाम लिख सकता हूँ।
मन्त्री वाग्भट्ट के इस उत्तर से समस्त सेठ लोग बड़े प्रसन्न हुए और उठ करके दुर्गत को नमस्कार किया।
वह मारु दुर्गत को पालीताणा में रहते हुए भोजन बनाने हेतु जमीन को तनिक खोदने पर सिक्कों से भरा हुआ एक लोटा प्राप्त हुआ। तपस्या का पारणा करने के पश्चात् उसने वह धन मन्त्री वाग्भट्ट के समक्ष रखा। मन्त्री ने शुभशीलशतक
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