Book Title: Shubhshil shatak
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 143
________________ उसी समय अमात्यपुत्र ने कहा - यह दूसरी का पुत्र है, यही इसकी असली माता है। इसे यह पुत्र सौंप दिया जाए । वह असली माता बहुत प्रसन्न हो गई और अपने घर पर बुला उन चारों को बड़े प्रेम से भोजन कराया। इस भोजन में हजार रुपये व्यय हुए। चौथे दिन पुण्यशाली राजपुत्र नगर में जाने लगा। उस समय अचानक ही उस नगर के अपुत्रीय / पुत्ररहित राजा की मृत्यु हो जाने के कारण पञ्च अभिमन्त्रित दिव्य प्रकट किये गये थे । दैवयोग से वह राजपुत्र ही वहाँ का राजा बन गया । तत्कालीन राजा ने अपने तीनों मित्रों को अपने पास बुलाकर बड़े सम्मान के साथ रखा और प्रत्येक कार्य में उनसे विचार किया करता था । एक समय उस नगर में कोई सद्गुरु पधारे। राजा और नगरवासी उनकी देशना सुनने के लिए गये। देशना के पश्चात् उस राजपुत्र राजा ने गुरु से पूछा हे भगवन्! मैंने पूर्व जन्म में ऐसा कौन सा सुकृत कार्य किया था कि मुझे राज्य प्राप्त हुआ और सार्थवाहपुत्र को दक्षता, श्रेष्ठिपुत्र को सौन्दर्य और मन्त्रीपुत्र को बुद्धिबल प्राप्त हुआ । गुरु ने उत्तर में कहा- पूर्वभव में तुम श्रीधन नाम के एक कौटुम्बिक थे । गुरु महाराज के मुख से अहिंसा प्रधान धर्म का श्रवण कर तुमने उसे स्वीकार किया था और जीवन पर्यन्त श्रद्धापूर्वक जीवदया का पालन किया था। इसी कारण तुम इस भव में राजा बने हो । सार्थवाह के पुत्र ने पूर्वभव में गुरुभक्ति की थी इसी कारण उसने इस भव में दक्षता प्राप्त की । श्रेष्ठिपुत्र ने पूर्वभव में एक मलिन जिन प्रतिमा को अच्छी तरह रगड़-रगड़ कर धोकर उज्ज्वल बनाई थी इसी कारण वह इस भव में रूपसम्पदा का अधिकारी बना । अमात्य - पुत्र ने पूर्वभव में हृदय से ज्ञान की भक्ति / उपासना की थी इसी कारण इस भव में उसे बुद्धिबल प्राप्त हुआ । गुरु महाराज के मुख से अपने पूर्वभवों को सुनकर चारों ही मित्र प्रसन्न हुए। जीवन पर्यन्त विशेष रूप से धर्म आराधना करते हुए स्वर्ग गये और क्रमशः मुक्ति को प्राप्त करेंगे । 130 Jain Education International शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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