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अर्थात् - यह लक्ष्मी विविध प्रयत्न करने पर भी भाग्यहीन को प्राप्त नहीं होती है। शेषशायी विष्णु की स्वयं सेवा करती रहती है। विष्णु और लक्ष्मी पृथक्-पृथक् नहीं है और उन दोनों में भेद भी नहीं है। वस्तुतः लक्ष्मी का आवागमन/विचरण विचार की सीमा से बाहर है।
उस उदयन ने कर्णावती नगरी में आकर अतीत, अनागत और वर्तमान चौबीसी अर्थात् ७२ जिनेन्द्रों से अलंकृत नवीन मन्दिर बनवाया। उस मन्दिर में मूलनायक के रूप में ऋषभदेव की प्रतिष्ठा की। वह उदयन गुजरात का मन्त्री बना। क्रमशः उसके ४ पुत्र हुए - बाहड़देव, चाहड़, अम्बड़ एवं सोल्ला। ९२. भाग्यशाली आभड़
पत्तन नगर में श्रीमालज्ञातीय आभड़ नामक वणिक् रहता था। उसके वंश में उसके अतिरिक्त कोई नहीं था। वह कांसे के बर्तन बनाने वाले बाजार में दिनभर बर्तन बनाते समय ठक-ठक् किया करता था। दिनभर में पाँच मुद्रा पैदा करता था। सुबह और शाम श्री हेमचन्द्राचार्य के पास आकर प्रतिक्रमण किया करता था। रत्नों की परीक्षा सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त करता रहता था और रत्न-परीक्षण में विशेषज्ञ हो गया था।
एक समय वह आचार्य हेमचन्द्रसूरि के पास में परिग्रह परिमाण का व्रत ग्रहण करने का अभिलाषी हुआ। वह कम राशि का परिमाण करने लगा। उस समय आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने उसके शारीरिक लक्षणों को देखकर और भविष्य में उसका उदय देखकर तीन लाख का परिमाण कराया। - आभड़ के एक पुत्र हुआ। वह माँ का दूध नहीं पीता था। अतः आभड़ ने विचार किया कि घर में बकरी रखी जाए और उसका दूध उस बच्चे को पिलाया जाए। बकरी खरीदने की इच्छा से वह किसी गाँव में गया। वहाँ गाँव के बाहर ही बकरियों का झुण्ड पानी पी रहा था। उसने देखा - 'एक बकरी जहाँ जल पी रही थी वहाँ जल दो प्रकार का हो जाता था।' उस कारण की खोज में लगा, उसे प्रतीत हुआ कि बकरी के गले में डोरे से बंधी
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शुभशीलशतक
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