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९४. वेष भावनाओं में परिवर्तन ला देता है.
सौराष्ट्र देश के राजपुत्र सुसर पर विजय प्राप्त करने के लिए महाराजा कुमारपाल ने उदयन मन्त्री को भेजा। शत्रुजय तीर्थ के निकट पहुँचने पर उदयन के हृदय में विचार आया – 'युद्ध भूमि में खेत (मरण) भी हो सकता हूँ और विजय भी हो सकती है अत: मेरे लिए यही उचित होगा कि युद्ध भूमि में उतरने के पूर्व शत्रुजय तीर्थ के अधिपति भगवान् को वन्दन करके युद्ध स्थल पर उतरूं।' ऐसा विचार आते ही रात्रि में ही मन्त्री उदयन भगवान् की पूजन इत्यादि करके प्रभु के समक्ष ध्यान में बैठ गया।
ध्यान-मुद्रा में ही उसने देखा – 'अकास्मात् ही एक चूहा दिये की बत्ती को लेकर मन्दिर के गर्भ-गृह में चला गया।' यह दृश्य देखते ही उदयन विचार करने लगा - 'यह मन्दिर काष्ठ का बना हुआ है। कदाचित् दिये की बत्ती से आग लग जाए तो मंदिर का विध्वंस अवश्यंभावी है।' ऐसा विचार कर उस दिये की बत्ती को बुझा दिया। विचार किया - 'इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाकर लकड़ी के स्थान पर संगमरमर का बनवाऊं।' ऐसा अभिग्रह कर उदयन युद्ध-स्थल की छावनी में आ गया।
प्रात:काल शत्रु के साथ भयंकर युद्ध हुआ। शत्रुबल को जीत ही रहा था कि अकस्मात् वैरी ने भी एक बाण फेंका, जो कि उदयन के गुह्यस्थान पर लगा। उदयन अश्व से भूमि पर गिर गया। करुण-क्रदन करने लगा। सैनिक उसे उठाकर छावनी में ले आए।
सेवक ने पूछा - आपको मानसिक सन्ताप क्या है जिसके कारण आप इतने दुःखित हो रहे हैं?
__ सेनापति उदयन ने कहा - संग्राम में जय-विजय होती रहती है इसकी मुझे चिन्ता नहीं है। मुझे मानसिक चिन्ता इस बात की है - जो मैंने मन से अभिग्रह धारण किया है वह पूर्ण होगा या नहीं?
सेवक ने पूछा - कौन सा अभिग्रह?
शुभशीलशतक
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