Book Title: Shubhshil shatak
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 173
________________ १००. सौवर्णिक दण्डालक अरिमर्दन राजा अपने सिंहासन पर बैठा हुआ था, उस समय कोई सिद्ध पुरुष वहाँ आया। राजा ने बैठने के लिए उसको आसन दिया। वह सिद्ध पुरुष बोला - मुझे निम्न स्थान पर आसन दे कर क्या तुम बड़े हो गये हो? यह सुनकर राजा बोला – राजा के आसन से दूसरे का आसन नीचा ही होता है। सुनकर सिद्ध पुरुष बोला - मैं तुम्हे स्वर्णसिद्धि देने के लिए यहाँ आया था। तुमने मेरा विनय/आदर-सत्कार नहीं किया इसलिए मैं वापस जाता हूँ। ऐसा कहकर अपने छात्र को छोड़कर वह सिद्ध पुरुष आकाश में चला गया। यह देखकर राजा बहुत खिन्न हुआ और उसने सिद्ध पुरुष के शिष्य को कहा- हे छात्र! मैंने तुम्हारे गुरुजी का विनय नहीं किया, मेरी गलती हुई। आगे से मैं उनको पूर्ण सम्मान दूंगा। तुम अपने गुरु को मनाकर ले आओ। छात्र के अनुनय विनय को ध्यान में रखकर वह सिद्ध पुरुष पुनः वहाँ आया। राजा ने स्वर्णसिद्धि के लिए याचना की। उस पर वह सिद्ध योगी बोला - आज से तुम मेरा नाम सौवर्णिक दण्डालक रखोगे तो ही मैं तुम्हे स्वर्णसिद्धि दूंगा। यह सुनकर राजा ने उसका नाम सौवर्णिक (सोनियों में) दण्डालक रख दिया। 160 शुभशीलशतक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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