Book Title: Shubhshil shatak
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 172
________________ सोमिलक वहाँ से धनभुक्त के घर गया। उसने भी भोजन कराया। संध्या का समय सुख-समाधि से बिता । रात्रि में उसने दो पुरुषों को बातचीत करते हुए पुनः देखा। एक पुरुष बोला- हे कर्ता! आज इस धनभुक्त ने सोमिलक को भोजन कराया। उसमें तुमने इसका बहुत खर्चा करवा दिया। यह धन उसने व्यापार से ही प्राप्त किया था। दूसरा पुरुष बोला - 'हे कर्म! यह कर्तृत्व मेरा ही था किन्तु इसकी परिणति/फल देने वाले तो तुम्हीं हो। प्रात:काल किसी राजपुत्र ने राजमहल से प्राप्त धन धनभुक्त को दिया था। यह संचय नहीं कर सकता किन्तु, उसने भोग किया। भाग्य में जो लिखा होता है वही मैं कर सकता हूँ, भाग्य से अधिक नहीं। उनका वार्तालाप सुनकर सोमिलक सन्तुष्ट हुआ। उसने यह सोच लिया कि मेरे भाग्य में नहीं लिखा है तो देव से याचना भी क्यों करूँ। ९९. व्रत-पालन में अडिग मुनि राजगृह नगर में चार समान अवस्था वाले चार वणिक् मित्र रहते थे। अन्यदा सोम, भोम, कमल और धन नामक चारों ने धर्म सुनकर आचार्य भद्रबाहु के पास संयम ग्रहण कर लिया और श्रुतज्ञानी हुए तथा गुरु का आदेश प्राप्त कर विचरण करने लगे। जहाँ भी सूर्यास्त होता वे लोग रुक जाते थे। एक दिन भयंकर सर्दी पड़ रही थी, उस समय एक मुनि वैभारगिरि के पास में ही ध्यानस्थ हो गया, दूसरा उद्यान में खड़ा रहा, तीसरा मुनि उद्यान के बाहर ध्यान करता रहा और चौथा मुनि नगर के समीप ही ध्यानस्थ होकर खड़ा रहा। उनमें से जो वैभारगिरि पर्वत के पास ध्यानस्थ था वह अत्यधिक ठण्ड के कारण पहले पहर में ध्यान करता हुआ मृत्यु को प्राप्त हुआ, उद्यान में रहने वाला दूसरा मुनि दूसरे पहर में मृत्यु को प्राप्त हुआ, उद्यान के बाहर ध्यान करता तीसरा मनि तीसरे पहर में स्वर्गवासी हआ और नगर के समीप रहने वाला चौथा मुनि भी चौथे पहर में देवलोक की ओर गमन कर गया। इस प्रकार चारों ही मुनि अपने नियमों में अडिग रहे। शुभशीलशतक 159 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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