Book Title: Shubhshil shatak
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 171
________________ घूमने लगा। किन्तु, उसका अण्डकोश गिरा नहीं। १५ वर्ष व्यतीत हो गये तब खिन्न होकर उस सियार ने कहा - शिथिलाश्च सुबद्धाश्च, पतन्ति न पतन्ति च। निरीक्षिता मया भद्रे, दश वर्षाणि पञ्च च॥ अर्थात् - ये शिथिल अवश्य हैं किन्तु चमड़ी से बंधे हुए हैं। ये गिरेंगे या नहीं, मैं नहीं जानता। हे भद्रे ! इसी रूप में देखते हुए हमारे पन्द्रह वर्ष व्यतीत हो गये। भविष्य में भी इनका पतन होगा, नहीं जानते, अतः इसका पीछा छोड़कर अपने जंगल के उस स्थान में चलें और वहीं चूहे आदि का भक्षण करते रहें। इसलिए मैं कहता हूँ कि धनवान की सब जगह पूछ/आवभगत होती है, अतः आप मुझे प्रचुर धन प्रदान करें। ___सोमिलक की याचना सुनकर वह पुरुष बोला - यदि ऐसा ही है तो तुम वर्धमानपुर वापस जाओ। वहाँ धनगुप्त और धनभुक्त रहते हैं। उनकी चेष्टाओं और व्यवहार को देखकर तुम मेरे से याचना करना। उसी समय सोमिलक विस्मित होकर वर्धमानपुर गया। सायंकाल धनगुप्त के घर पहुँचा, वहाँ उसने देखा कि वह धनगुप्त अपनी पत्नी और पुत्रों से तिरस्कृत होकर घर के आँगन में बैठा हुआ है। सोमिलक को भोजन के समय घी-तेल रहित भोजन मिलता है। वह रात्रि को वहीं विश्राम करता है। रात्रि में दो पुरुषों को आपस में वार्तालाप करते हुए देखता है। उनमें से एक पुरुष बोलता है - हे कर्ता ! आज तुमने धनगुप्त का अधिक खर्या करवा दिया, जो इसने सोमिलक को भोजन करवाया, यह तुमने अच्छा नहीं किया। यह सुनकर दूसरा पुरुष बोला - हे कर्म! इसमें मेरा दोष नहीं है। मैंने तो उसे लाभ प्राप्त हो, इसलिए ऐसा किया किन्तु, इसका फल तो तुम्ही दे सकते हो। . धनगुप्त ज्यों ही उठता है त्यों ही वह उल्टी कर देता है। दूसरे दिन वह खिन्न होकर लंघन करता है। 158 शुभशीलशतक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 169 170 171 172 173 174