Book Title: Shubhshil shatak
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 170
________________ सकता है और दिन भी लग सकता है, किन्तु गिरेंगे अवश्य। इसलिए हम दोनों इसके पीछे-पीछे चलें। सियार ने उत्तर दिया- हे प्रिये ! मैं नहीं जानता कि यह माँस-पिण्ड गिरेगा अथवा नहीं। व्यर्थ में परिश्रम क्यों करे? यदि यहीं पर यह लटकता हुआ माँस पिण्ड गिर जाए तो मैं तेरे साथ ही उसका आराम से भक्षण करूं अथवा कुछ दूरी तक इसका पीछा भी करूं । पीछा करने पर अपना जो स्थान है, उस पर किसी ने कब्जा कर लिया तो हम कहीं के नहीं रहेंगे, इसलिए इसका पीछा करना उपयुक्त नहीं है।' कहा भी है - यो ध्रुवाणि परित्यज्य, अधुवाणि निषेवते। ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति, अधुवं नष्टमेव च। अर्थात् - हाथ की वस्तु को छोड़कर जो परोक्ष वस्तु की कामना करता है। इस दशा में उसकी हस्तगत वस्तु भी चली जाती है और परोक्ष वस्तु भी नहीं मिलती है। यह सुनकर उस सियारिणी ने कहा - प्रिय ! आपके ये वचन कायर पुरुषों के हैं। कहा भी है - यत्रोत्साहसमालम्बो, यत्रालस्यविहीनता। नय-विक्रमसंयोग-स्तत्र श्रीरखिला ध्रुवम्॥ अर्थात् - जहाँ उत्साह का आलम्बन हो, आलस नहीं हो और पुरुषार्थ का संयोग हो, वहाँ निश्चित रूप से लक्ष्मी निवास करती है। और भी कहा है - म दैवमिति संचिन्त्य, त्यजेदुद्योगमात्मनः । उद्योगेन विना तैलं, तिलेभ्योऽपि न जायते॥ अर्थात् - भाग्य के भरोसे से जो स्वयं का उद्यम-परिश्रम त्याग कर देता है वह अयुक्त है क्योंकि उद्यम करने से ही तिलों से तैल प्राप्त होता है। तुम्हारा यह कहना भी युक्तिसंगत नहीं है कि यह लम्बमान माँसपिण्ड गिरेगा अथवा नहीं? सियारिन के प्रोत्साहन से वह सियार भी चूहे आदि भक्ष्य पदार्थों को छोड़कर अण्डकोश खाने की इच्छा से उस साँड के पीछे शुभशीलशतक 157 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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