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९७. सिद्धचक्रवर्ती विरुद और योगिनियाँ.
अणहिलपुर पत्तन में चौलुक्यवंशीय कर्ण राजा का पुत्र जयसिंहदेव यात्रा करके सहस्रलिंग सरोवर के मध्य में बगस्थल पर बैठा ।
इसी बीच बहुत से वेद-पाठी याज्ञिक बाह्मण लोग यात्रा के लिए चले । गंगा, गोदावरी आदि तीर्थस्थलों में स्नान करके केदार पर्वत की ओर प्रयाण किया । हिमालय पर औषधि के लिए घूमते हुए उन्होंने एक योगी को देखा। उस योगी के सिद्धि, बुद्धि नाम की दो छोटी शिष्याएँ थी । जिनको यहाँ रउलाणी के नाम से कहा गया है। उन दोनों क्षुल्लक योगिनियों को देखकरं ब्राह्मणों ने उनको नमस्कार किया और उनके सम्मुख बैठे I योगिनी ने उनका कुशल-क्षेम पूछने के पश्चात् आप लोग कहाँ से आए हो ? यह भी पूछ लिया ।
उन वैदिक ब्राह्मणों ने कहा- हम पत्तन नगर से आए हैं। उन दोनों क्षुल्लिकाओं ने पूछा- तुम्हारा स्वामी कौन है ?
उन्होंने कहा - हमारा स्वामी सिद्धचक्रवर्ती जयसिंहदेव है ।
यह सुनकर दोनों रुष्ट होकर कहने लगी - अरे ब्राह्मणों! यदि वह सिद्ध है तो चक्रवर्ती कैसा? और यदि वह चक्रवर्ती है तो उसका सिद्धत्व कैसा ?
तत्पश्चात् वे दोनों सिद्धि बुद्धि नाम की योगिनियाँ राजा के सिद्धचक्रवर्ती विशेषण/उपाधि की परीक्षा करने के लिए पत्तन नगर पहुँची ।
आप
राजा ने सभा में बैठे हुए देखा कि वे योगिनियाँ कदलीपत्र पर बैठकर आ रही हैं । राजा ने उठकर उनका सत्कार किया और पूछा यहाँ किसलिए पधारी हैं ? उन दोनों ने कहा आपके नाम के साथ जो सिद्धचक्रवर्ती उपाधि है, उसका परीक्षण करने हम यहाँ आई हैं। आप बतलाईये - 'आप सिद्ध और चक्रवर्ती एक साथ कैसे हैं? '
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शुभशीलशतक
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