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नकली वेषधारी था। अब मैं वास्तविक साधु बनकर जीवन यापन करूँगा।' उसने अन्तिम जीवन उसी वेष में रहकर सम्यक् आराधना की।
उदयन के मरणोपरान्त उसकी सारी सेना पाटण आ गई। ताम्बूलवाहक ने सेनापति मन्त्री उदयन के मरण-पूर्व लिए गए अभिग्रह इत्यादि के समस्त वृत्तान्त उनके पुत्रों वाग्भट्ट, आम्रभट्ट आदि को सुनाये।
पिताश्री के अभिग्रह/मनोरथों को सुनकर आम्रभट्ट और वाग्भट्ट ने प्रतिज्ञा की - 'जैसे भी हो हम पिताश्री के अभिग्रह को अवश्य पूर्ण करेंगे।' उन दोनों ने विपुल द्रव्य खर्च कर शत्रुञ्जय तीर्थ पर मूलमन्दिर का जीर्णोद्धार प्रारम्भ किया। दो वर्ष पश्चात् उनको यह बधाई प्राप्त हुई कि 'शत्रुञ्जय मूलमन्दिर का जीर्णोद्धार कार्य पूर्ण हो गया है।' बधाई के उपलक्ष्य में बधाई देने वाले को सोने की 'स्वर्ण जिह्वा' प्रदान की। कुछ समय पश्चात् ही जब उसे यह समाचार मिला कि 'शत्रञ्जय के प्रासाद का पतन हो गया है।' उसने इस अमंगलकारी बधाई देने वाले को दो स्वर्ण जिह्वा प्रदान की। सोचने लगे - 'आज हमने उद्धार करवाया है, भविष्य में कौन उद्धार करवायेगा? अब इस मन्दिर का इस प्रकार उद्धार करवाया जाए कि भविष्य में इसका पतन न हो।'
यह सोचकर ४००० अश्वारोहियों के साथ शत्रुञ्जय तीर्थ पर पहुँचे और सोमपुरा को बुलाकर कहा - क्या किया जाए? भविष्य में निर्माण ऐसा हो कि इसके खण्डित होने की आशंका ही न हो।'
सोमपुरा ने कहा - पूर्व प्रासाद का प्रचण्ड वायु के झंझावात से यह मन्दिर नष्ट हुआ है । यदि आप लोगों की इच्छानुसार पत्थरों का मन्दिर बनवाया जाए तो वह चिरकाल तक रहेगा। किन्तु, आपके सन्तान नहीं होगी।
यह सुनकर आम्रभट्ट आदि ने विचार किया - ‘मन्दिरों के निर्माण के कारण ही भरतचक्रवर्ती आदि पंक्तिबद्ध मुकुटधारी राजाओं के नाम मिलते हैं । सन्तति का लोभ हो सकता है किन्तु मन्दिर के साथ बन्धे हुए नाम का विलोप नहीं हो सकता अर्थात् नाम अमर रहता है।' ऐसा निर्णय कर उन्होंने सम्वत् १२११ में प्रासाद का पुनर्निर्माण करवाया। अपने नाम से
शुभशीलशतक
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