Book Title: Shubhshil shatak
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 142
________________ एक समय वे चारों मित्र धनार्जन हेतु दूसरे देश में गये। वहाँ किसी उद्यान में ठहरे । दक्ष सार्थवाह-पुत्र नगर में गया। वहाँ किसी श्रेष्ठि की दुकान पर बैठ कर वार्तालाप करने गया। संयोग से उसे सेठ की दुकान पर बहुत सारे ग्राहक आए, काफी माल बिका। सेठ को बहुत लाभ हुआ। सेठ ने विचार किया -- 'ये दूसरे प्रदेश का निवासी जब से मेरी दुकान पर बैठा है तभी से मुझे अत्यधिक लाभ हुआ है।' यह सोचकर उस सेठ ने सार्थवाहपुत्र से कहा - उठो! भोजन करने चलो। सार्थवाह-पुत्र ने कहा - मैं अकेला नहीं हूँ, हम चार मित्र हैं। हम साथ ही भोजन करते हैं, अलग-अलग और अकेले नहीं। सेठ ने उन शेष मित्रों को भी बुला लिया और स्वादिष्ट भोजन करवाया। उनको भोजन कराने में सेठ के पाँच रुपये खर्च हुए। दूसरे दिवस सौन्दर्यवान श्रेष्ठिपुत्र गणिका के घर में गया और वहाँ अपने मित्रों के साथ सत्कार के साथ भोजन किया। उस भोजन में गणिका के सौ रुपये खर्च हुए। तीसरे दिन बुद्धिमान मंत्रीपुत्र नगर में गया। वहाँ उसने एक स्थान पर विवाद होते हुए देखा। विवाद का विषय था - दो सौतों के बीच में एक पुत्र था। धन के लोभ से दोनों में यह संघर्ष छिड़ा कि - 'यह पुत्र मेरा है, यह पुत्र मेरा है।' इस विवाद का निष्पक्ष निर्णय नहीं हो पा रहा था। उस समय अमात्यपुत्र ने बीच में पड़ कर यह कहा - 'पुत्र एक है, माताएँ दो हैं । अतः इस पुत्र के दो टुकड़े कर दिये जाएँ और दोनों सौतें उसे स्वीकार करें। उसी समय नकली माता ने यह कहा - मुझे यह निर्णय मान्य है। दूसरी असली माता ने कहा - यह पुत्र जीवित रहे, इसलिए इस पहली को ही सौंप दिया जाएँ। शुभशीलशतक 129 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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