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करने लगा। कुछ वर्षों पश्चात् माता-पिता के साथ पुण्यसार ने दीक्षा ग्रहण की। शुद्धधर्म की आराधना करता हुआ उग्र तपश्चर्या करता हुआ वहाँ से देह छोड़कर स्वर्गलोक में देव होगा।
वहाँ से मनुष्य भव धारण कर विशुद्ध संयम पालन कर सिद्धि-वधू को प्राप्त करेगा। अत: अब भव्यजनों को भी निरन्तर, प्रबल पुण्य कर्मों की उपार्जन करना चाहिए। ८९. अहिंसा की महत्ता.
सत्थवाहसुओ दक्खत्तणेणं, सिट्ठिसुओ सुरूवेण। बुद्धीइ अमच्चसओ, जीवइ पुण्णेहिं रायसुओ ॥१॥
अर्थात् - सार्थवाह के पुत्र ने दक्षता से, श्रेष्ठिपुत्र ने स्वरूप सौन्दर्य से, मन्त्रीपुत्र ने बुद्धिबल से और राजकुमार ने पुण्यबल से जीवन में सफलता प्राप्त की।
दक्खत्तं पंचरूयं, सुंदरे सयसमं विआरिज्जा। बुद्धी पुण्णसहस्सा, सयसहस्साइं पुण्णाई॥२॥
अर्थात् - निपुणता से पाँच गुणा, सौन्दर्य से सौ गुणा, बुद्धि से हजार गुणा और पुण्य से लाख गुणा सफलता प्राप्त होती है।
मंत्रीपुत्र, राजपुत्र, श्रेष्ठिपुत्र और सार्थवाह-पुत्र ये चारों ही घनिष्ठ मित्र थे।
एक समय राजपुत्र ने कहा - मैं अपने पुण्य के बल पर जीवन जीऊंगा।
मंत्रीपुत्र ने कहा - मैं अपने बुद्धि बल से जीवन-यापन करूँगा।
श्रेष्ठिपुत्र ने कहा - मैं रूप, सौन्दर्य के बल पर जीवन-व्यतीत करूँगा।
सार्थवाह के पुत्र ने कहा - मैं अपनी दक्षता/चतुरता के बल पर जीवन सफल बनाऊँगा।
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शुभशीलशतक
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