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एक समय पुण्यसार ने स्वप्न में देखा कि महालक्ष्मी कह रही है - तुम्हारे द्वारा पूर्वार्जित पुण्य कर्मों के कारण मैं तुम्हारे घर में निवास करना चाहती हूँ।
पुण्यसार ने कहा - इसकी पहचान कैसे हो?
महालक्ष्मी ने कहा - प्रात:काल अपने घर के चारों दिशाओं में इसका प्रत्यक्ष अनुभव कर लेना।
प्रात:काल पुण्यसार ने देखा कि चारों कोनों में धन से भरे हुए चार कलश विद्यमान हैं।
पुण्यसार ने सोचा - कहीं चोरी का कलंक न लग जाए अथवा कोई नई बात पैदा न हो जाए, इसलिए यह उपयुक्त है कि राजा को जाकर निवेदन कर दूँ।
पुण्यसार ने राजा को जाकर निवेदन किया। राजा ने भी उसके घर जाकर धन से भरे हुए चार कलशों को देखा। धन को देखकर राजा की नियत बदल गई और 'यह तो राजकीय धन है', ऐसा कहकर वे चारों धनकलश अपने राजकोश में जमा करवा दिये।
दूसरे दिन भी पुण्यसार ने उसी प्रकार धन-कलशों को देखा। राजा को निवेदन किया। राजा ने लोभ के वशीभूत होकर वे कलश भी अपने यहाँ मंगवा लिये। इसी प्रकार तीसरे दिन भी हुआ और चौथे दिन भी इसी प्रकार हुआ।
जब ये कलश राज-भण्डार में जमा करवा दिये गये तो, उसके कुछ क्षणों पश्चात् ही कोषाधिकारी और मन्त्री ने राजा से निवेदन कहा - राजन् ! धन से भरे हुए वे सारे कलश कोषागार से गायब हो गये हैं। किसने हरण किये है, हम नहीं जानते हैं?
उसी समय देववाणी हुई - हे राजन् ! पुण्यसार के पुण्य से ही ये धन के कलश उनके यहाँ मैंने छोड़े थे। तुम मूर्ख हो, जो कि उस धन पर अधिकार करना चाहते हो।
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शुभशीलशतक
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