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इस झगड़े को सुनकर नगर का कोतवाल भी आया, वहाँ का राजा भी आया। सबके सामने रूपश्री ने वही बात कही। जब चन्द्र से पूछा गया तो उसने कहा यह तो मेरी पत्नी है ।
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रूपश्री'ने तत्काल ही प्रतिवाद किया
यह झूठ बोलता है । मैं इसकी कोई पत्नी नहीं हूँ। यह झूठा नाटक रचकर मुझे अपने कब्जे में करना चाहता है। आप लोग मेरी रक्षा करें, ऐसा कहती हुई झूठ-मूठ ही धमीड़ा खाते हुए रोने लगी।
राजा ने और नागरिकों ने चन्द्र को झूठा समझ कर नगर से निष्कासन का आदेश दे दिया। उसी समय चन्द्र ने कहा
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यस्यै निजं कुलं त्यक्तं, जीवितार्थं चहारितम् । सा मयि भवति निःस्नेहा, कः स्त्रीणां विश्वसेन्नरः ॥
अर्थात् - जिस औरत के कारण मैंने अपने कुल का त्याग कर दिया, माता-पिता और गाँव का त्याग कर दिया, धन-माल का त्याग कर दिया और पागल होकर उसके पीछे जंगलों की खाक छानता रहा । ऐसी दशा में भी वह यदि मेरे प्रति निर्मोही होकर मेरा त्याग करती है तो ऐसी पुंश्चला स्त्रियों का विश्वास कौन करेगा?
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इस प्रकार राजा के समक्ष अपना स्वरूप बतलाकर, पहचान देकर वह संसार से विरक्त हो गया और संसार का त्याग कर दिया ।
पुण्य बल से समृद्धि स्वतः प्राप्त होती है.
साकेतनपुर में भानुप्रभ नाम का राजा राज्य करता था। उस नगर में राजमान्य धनमित्र नाम का सेठ रहता था । उसकी पत्नी का नाम धनमित्रा था । धनमित्रा ने एक दिन स्वप्न में धन से भरा हुआ कलश देखा । समय पूर्ण होने पर उसने पुत्र को जन्म दिया। जन्मोत्सव मनाने के पश्चात् पुत्र का नाम पुण्यसार रखा गया। पुण्यसार युवावस्था को प्राप्त हुआ। पिता ने धर्म और व्यवहार के शास्त्रों में निपुण पुण्यसार का विवाह कर दिया। समय बीतने पर उसके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया ।
शुभशीलशतक
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