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__इस अन्तर को ध्यान में रखते हुए भूपति नरेन्द्र ने सत्पात्र को पहले दान दिया। ८७. त्रिया चरित्र.
संसारम्मि असारे, नत्थि सुहं वाहिवेअणापउरे। जाणंतो इह जीवो, न कुणइ जिणदेसिअं धम्मं॥
अर्थात् - यह संसार सारहीन/नश्वर है, इस संसार में तनिक भी सुख नहीं है बल्कि व्याधि और वेदना बहुल है। ऐसा जानता/समझता हुआ भी यह जीव जिनप्ररूपित धर्म का आचरण नहीं करता है। उदाहरण प्रस्तुत है :
श्रीपुर नगर में धन नामक सेठ रहता था। उसके धन नाम की पत्नी थी। उनके पुत्र का नाम चन्द्र था और चन्द्र की पत्नी का नाम रूपश्री था। चन्द्र अपनी पत्नी पर इतना अधिक मोहित/आसक्त था कि पत्नी के इशारे पर वह चलता था अर्थात् पत्नी का नौकर था।
एक समय उसकी पत्नी ने कहा - हे चन्द्र ! हे प्रिय! तुम्हारे मातापिता अर्थात् मेरी सास और ससुर मेरे साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते हैं, जो मन में चाहें वे बोलते रहते हैं, अत: माता-पिता को छोड़कर हम दोनों परदेश चलें।
पत्नी-मोहित चन्द्र ने पत्नी की आज्ञा को शिरोधार्य कर माता-पिता को छोड़कर पत्नी के साथ परदेश चला।
मार्ग में पत्नी को प्यास लगी और उसने चन्द्र से कहा - मुझे बहुत जोर की प्यास लगी है, कण्ठ सुख रहा है, प्राण निकल रहे हैं।
__चन्द्र ने कहा - आगे तालाब नजर आ रहा है, वहाँ तक चलो। वहाँ पानी पीकर अपनी प्यास बुझा लेना।
थोड़ी दूर चलकर सरोवर के निकट पहुँच कर रूपश्री धम्म से बैठ गई और उसने कहा - यहीं पानी लाकर मुझे पिलाओ।
शुभशीलशतक
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