Book Title: Shubhshil shatak
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 134
________________ उसी समय आचार्य के ध्यान के प्रभाव से एक शकुनिका (गरुड, गिद्ध अथवा गौरैया नाम का पक्षी) अचानक वहा आती है और उन दोनों साँपों को चोंच से पकड़कर बहुत दूर ले जाकर छोड़ देती है । आचार्य विजयश्री प्राप्त करते हैं और काह्नड़ योगी पराजित होकर नीचा मुख करके अपने पैरों में पहना हुआ तौड़ा (आभूषण) उतार कर गुरुचरणों में रख देता है और करुणा - विगलित शब्दों में कहता है - हे प्रभु ! मेरी जीविका के आधारभूत ये दोनों सर्प ही थे। मैं कमाने-खाने लायक भी नहीं रहूँगा। कृपा कर बतलाईये - उन दोनों सर्पों को कहाँ छोड़ा गया है? गुरु ने ध्यान मग्न होकर कहा - नर्मदा नदी के किनारे पर है । उसी समय कुरुकुल्ला नामक देवी ने आकर कहा - मेरा निवास-स्थान सामने वाला वट-वृक्ष ही है, उसी वृक्ष पर बैठी हुई ४ माह से मैं आचार्य देव का व्याख्यान / देशना सुनती रही हूँ । गुरु पर किसी प्रकार का उपद्रव हो, क्या मैं उसका देख सकती हूँ? नहीं, इसलिए मैंने आकर उन सर्पों को दूर ले जाकर छोड़ दिया है। गुरु की स्तवना करते हुए उसने ३ पद्य कहे पुन: देवी ने कहा - 'इन श्लोकों को आप भण्डारस्थ कर दीजिए, किसी को मत दीजिए। मेरे द्वारा निर्मित ये तीनों स्तुति काव्य जो भी अपने दरवाजे पर लिखे हुए इनको पढ़ेगा, उनको भविष्य में किसी प्रकार का सांप का उपद्रव नहीं होगा।' ऐसा निवेदन करती हुई वह देवी अपने स्थान पर चली गई। आचार्य देवसूरि ने काह्नड़ योगी पर विजय प्राप्त की । वह योगी काह्नड़ भी अपनी समस्त गारुडिक कलाओं को छोड़कर उसी दिन से गुरु की चरण- सेवा करने लगा । ८६. पात्र दान में भेद. एक दिन 'सत्पात्र दान का फल स्वर्ग एवं मोक्ष सुख है', ऐसा सुनकर कर्ण राजा प्रतिदिन प्रात: काल में १०० संख्या के वजन के तुल्य स्वर्ण Jain Education International शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only 121 www.jainelibrary.org

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