________________
मालदेवादि तीनों भाईयों ने कहा - भाईश्री! हम वचनबद्ध होते हैं कि यदि लक्ष्मी का सुयोग मिल गया तो हम आपकी इस भावना को अवश्य ही पूर्ण करेंगे।
भाईयों के वचनबद्ध होने पर लूणिग ने समाधि के साथ प्राण छोड़ दिये।
कुछ वर्षों पश्चात् भाग्योदय होने एवं धोलका के मन्त्री बनने पर व्यावहारिक चतुरता के साथ उन्होंने बड़े भाई लूणिग की मनोकामना पूर्ण करने के लिए अर्बुदगिरि के श्री बोड़ा माता की देवकुलिका के पास ही भूमि लेने का निर्णय किया। वहाँ की भूमि ब्राह्मण समाज के अधीन थी। पंच को बुलाकर इस सम्बन्ध में वार्ता की। धोलका का मन्त्री यह जमीन खरीदना चाहता है इसलिए ब्राह्मणों ने मुँह-माँगी रकम माँगी। इन भाईयों ने भी जितनी भूमि ग्रहण करनी थी, उतनी भूमि पर द्रमक (उस समय का प्रचलित सिक्का) बिछा कर वह राशि ब्राह्मण समाज को अर्पित की। भूमि-क्रय में इन भाईयों ने ३६०० मण द्रमक द्रव्य व्यय किया था। इस विशाल द्रव्य राशि को देखकर विक्रय-कर्ताओं ने कहा - आपने हमारी कल्पना से भी अधिक राशि दी है। हम इससे अधिक एक सिक्का भी नहीं चाहते हैं और आप यह पर्वत की भूमि देवमन्दिर के लिए सहर्ष स्वीकार करें।
मन्दिर का निर्माण विक्रम सम्वत् १२८३ में प्रारम्भ किया और निर्माण कार्य विक्रम सम्वत् १२९२ में पूर्ण हुआ। इस नवीन मंदिर के निर्माण कार्य में वस्तुपाल तेजपाल ने उस समय १२ करोड ५३ लाख रुपये व्यय किये। बड़े भाई लूणिग की अन्तिम इच्छा को ध्यान में रखकर ही इस मंदिर का निर्माण हुआ अतएव समस्त भाईयों ने इस मन्दिर का नाम लूणिग वसही रखा। ८५. आचार्य देवसूरि और काह्नड़ योगी.
एक समय भृगुकच्छ (भरोंच) में आचार्य श्री देवसूरि विराजमान थे। काह्नड़ नाम का योगी सांपों से भरे हुए ८४ पिटारे (करण्डिकाएँ) लेकर
शुभशीलशतक
119
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org