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आचार्य के पास पहुँचा। काह्नड़ ने गर्व के साथ कहा - हे आचार्य ! आप मेरे साथ शास्त्रार्थ करिये। यदि आप शास्त्रार्थ नहीं करते हैं तो आप अपना आसन छोड़िये और मृत्यु का वरण कीजिए।
देवसूरि ने योगी की घमण्डपूर्ण चुनौती स्वीकार की और जिस आसन पर बैठे थे, उस आसन के चारों तरफ ७ रेखाएँ खींच कर योगी से कहा - हे योगीराज ! मैं आपकी चुनौती को स्वीकार करता हूँ। आप अपने सर्पो को जहाँ चाहें छोड़ दीजिए।
यह सुनकर उस काह्नड़ योगी ने साँप छोड़ दिये। पहला विषधर साँप पहली रेखा को न लांघ सका। दूसरा दूसरी रेखा को न लांघ सका और इस प्रकार क्रमश: छठी रेखा को कोई साँप न लांघ सका। अपना जोर न चलने पर वे विषधर नागराज क्रोधित होकर फुफकारते हुए जमीन पर सिर पटकने लगे। काह्नड़ योगी अपनी विफलता देखकर उद्विग्न हो गया और उसने आचार्य से कहा - आप भूमि पर बैठिये और मेरा क्रिया-कलाप देखिये।
आचार्य ने कहा - हे काहड़! भूमि पर बैठने से क्या होगा? तुम्हारे पास बली से बली जो सर्पराज हो, उसे आप हमारी तरफ छोड़ दें।
__काह्नड़ योगी भी अपने होने वाली पराजय से तिलमिलाता हुआ नलिका (कंधे पर लटकती हुई सांप की पिटारी) में से सिन्दुरी रंग के सांप को - जिसके दृष्टि पड़ने मात्र से केले का पत्ता जलकर खाक हो जाए - आचार्य के ऊपर छोड़ा। वह भी दूसरे सर्प को वाहन बनाकर आचार्य द्वारा बनाई हुई रेखा को लांघने में समर्थ नहीं हुआ। ऐसी दशा में उस सिन्दुरी रंग के सर्प ने वाहन सर्प से उतर कर अपनी लपलपाती जिह्वा से रेखा को नष्ट कर दिया। इस प्रकार रेखाओं को समाप्त करता हुआ वाहन सर्प पर बैठकर वह पाट पर चढ़ने लगा, उस समय आचार्य के शिष्यों और दर्शक लोगों में हाहाकार मच गया।
आचार्य देवसूरि ने सघन-विघ्न देखकर निश्चिन्त होकर शान्त मन से ध्यान मग्न हो गये।
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शुभशीलशतक
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