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सका। दोनों ही थकान मिटाने के लिए आराम करने लगे । अर्जुन निद्राधीन हो गया।
तीसरे पहर में सहदेव और नकुल पहरा देने लगे। उनके साथ भी कल का आपस में युद्ध हुआ पर कोई विजय प्राप्त न कर सका ।
चौथे पहर में महाराजा युधिष्ठिर उठे और सामायिक ग्रहण कर एकचित्त से नमस्कार मंत्र का जाप करने लगे । तत्पश्चात् प्रतिक्रमण की कामना से युधिष्ठिर धर्म - ध्यान में संलग्न हो गये। उसी समय वह कलि असुर भी सात हाथ लम्बा शरीर धारण कर युधिष्ठिर को धर्म से चलायमान करने लगा । युधिष्ठिर के चलायमान ने होने पर व्याघ्रादि अनेक रूपों को धारण कर वह उपद्रव करने लगा, किन्तु युधिष्ठिर समता भाव धारण शान्त रहा और प्रतिक्रमण पूर्ण कर समस्त जीवों के साथ मुक्त - वैर हो गया । कलि असुर ने ज्योंही काली सुपारी के समान अपना छोटा सा रूप धारण किया त्यों ही युधिष्ठिर ने उसको गोलाकार रेखाओं के भीतर कैद कर लिया ।
प्रात: काल होने पर भी जब चारों भाई नहीं उठें तब युधिष्ठिर ने उनको कष्टपूर्वक उठाया और पूछा - 'हे भाइयों ! आप लोग इस प्रकार बेसुध होकर कैसे सो रहे थे?' तब चारों भाईयों ने रात बीती घटना सुनाई। उनके मुख से उक्त घटना को सुनकर युधिष्ठिर बोला- 'वह कलि असुर कही गया नहीं है, वह यहीं है, मैंने उसको रेखाओं में कैद कर रखा है । ' ज्यों ही युधिष्ठिर ने उसे मुक्त किया त्यों ही वह कलि असुर उन सब के सन्मुख आया, प्रसन्न होकर अपने स्वाभाविक रूप को प्रकट कर युधिष्ठिर से कहा -
सौभाग्यसरलाशयः ।
पुण्यवान् भाग्यात् धरणीपीठे,
जगद्वन्द्यक्रमाम्बुजः ॥
अर्थात् - आप धन्य हैं, पुण्यवान हैं, भाग्यवान हैं, सौभाग्यवान हैं और सरल मन वाले हैं । आप इस भूमितल पर विद्यमान हैं, चरण-कमल जगद् द्वारा वन्दनीय हैं ।
अतः आपके
कलि असुर बोला - जो विग्रह उपस्थित होने पर भी क्षमा धारण
शुभशीलशतक
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धन्यस्त्वं
विद्यसे
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