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दण्डारोपण महोत्सव समारोह हुआ। श्री मुनिचन्द्रसूरि के आत्मीय शिष्य वादी देवसूरि ने इस मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई।
यह स्थान फलवर्द्धि पार्श्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ (जो आज मेड़ता रोड़ के नाम से मशहूर है)। फलोधी पार्श्वनाथ तीर्थ के समीपवर्ती अजमेर और नागपुर (नागौर) के श्रावकों और गोष्ठिकों के हृदय में विचार हुआ 'भूल गर्भगृह में एक ही प्रतिमा है, अन्य भी स्थापित की जाए' किन्तु उन उपासकों की यह भावना सफल नहीं हुई, क्योंकि शासनदेव पार्श्वयक्ष मूलनायक के साथ अन्य किसी प्रतिमा को स्थापित नहीं करने देता था। ६५. अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ तीर्थ.
स्नात्रजलैस्तैलैरिव, साम्प्रतमपि यस्य दीप्यते दीपः। स श्रीमदन्तरिक्ष-श्रीपार्श्वः श्रीपुरे जयति॥
अर्थात् - स्नात्र के जल से ही तैल के समान जहाँ आज भी दीपक जलते है, वे श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ भगवान् श्रीपुर में जयवन्त हैं।
दशानन रावण के राज्यकाल में पुष्प नामक ब्रह्मचारी ने अपनी विद्या से अपने स्वामी माली नामक विद्याधर के पूजन हेतु बालुकामय पार्श्वनाथ भगवान् की मूर्ति का निर्माण किया। राम-रावण युद्ध में माली का संहार हुआ और वह प्रतिमा सरोवर (तालाब) में विसर्जित कर दी गई। बालुकामय प्रतिमा होते हुए भी वह देव-सान्निध्य से अखण्ड रूप वाली ही बनी रही।
__चिंगउलिक देश में चिग्गलकपुर के अधिपति श्रीपाल नामक राजा हुए थे। उनको असाध्य कुष्ठ रोग हो गया था। संयोग से वे घूमते हुए इस सरोवर के निकट आए और अत्यधिक शारीरिक गर्मी को शान्त करने के लिए श्रीपाल राजा ने इस सरोवर में डुबकी लगाकर स्नान किया। दैवयोग से राजा का कुष्ठ जड़-मूल से खत्म हो गया। प्रसन्नवदन राजा अपने घर आया। लोगों ने रोग-रहित दैदीप्यमान शरीर को देखकर उनसे पूछा – राजन् ! आप तो असाध्य कुष्ठ से पीड़ित थे, अचानक यह परिवर्तन कैसे हो गया?
शुभशीलशतक
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