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कर्णभूमिपतिर्दत्ते, दानमभ्यर्थिते ... सदा। युधिष्ठिरस्तु पूर्वाह्ने, नापराह्ने कदाचन॥
अर्थात् - याचकगण जब भी उपस्थित होते, उसी समय महाराजा कर्ण दान दे देते थे और महाराजा युधिष्ठिर पूर्वाह्न में ही दान देते थे अपराह्न में नहीं।
परीक्षा हेतु दो देव धार्मिकजन का रूप धारण कर राजा के घर आए। उस समय राजा दान देकर भोजन करके शयन कर रहा था। प्रतीहार ने जाकर राजा से निवेदन किया- साधर्मिक लोग याचना करने के लिए आए है।
युधिष्ठिर ने तत्काल ही उत्तर दिया - दान का भी समय निश्चित होता है, हर समय दान नहीं दिया जाता।
दोनों देव महाराजा कर्ण के द्वार पर आए। द्वारपाल ने महाराज से कहा। उस समय महाराजा कर्ण स्नान करने के लिए चौकी पर बैठे ही थे। वस्त्र-रहित नग्न शरीर था। कर्ण ने कहा- दोनों अतिथियों को भेजो। मैं उनकी कामना पूर्ण करूँगा। कहा भी है -
चलं चित्तं चलं वित्तं, चलं जीवितमावयोः। विलम्बो नैव कर्त्तव्यो, धर्मस्य त्वरिता गतिः॥
अर्थात् - चित्त चंचल है, लक्ष्मी चलायमान है और हमारा जीवन भी अस्थिर है, अत: ऐसे श्रेष्ठ कार्यों में कदापि विलम्ब नहीं करना चाहिए, क्योंकि धर्म त्वरित गतिमान है।
महाराजा कर्ण के इस प्रकार वचन सुनकर दोनों देवों ने प्रकट होकर कहा - हे कर्णराज ! हे देव! इस समय में इस भूतल पर आपके जैसा कोई समर्थ दानी नहीं है। ७३. गणिका का बुद्धि चातुर्य.
ताम्रलिप्तिपुर से विदेश व्यापार हेतु जाने वाले अपने पुत्र को शिक्षा प्रदान करते हुए उसके पिता ने कहा - हे पुत्र ! तुम भूल से भी अन्यायपुर पत्तन मत जाना क्योंकि वहाँ अन्याय नामक राजा है, विचारहीन मंत्री है,
शुभशीलशतक
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