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सर्वग्राही कोटवाल है, अशान्त नामक पुरोहित है, गृहीतभक्ष/सब कुछ हजम , करने वाला सेठ है, उसका पुत्र मूलनाश है, यमघंटा नाम की कुट्टिनी है, रणघंटा नाम की कुट्टिनी की पुत्री है और बहुत से जुआरी वहाँ रहते हैं। धूर्त लोगों से वह नगर भरा हुआ है। यदि कदाचित् तुम्हारा जाना हो जाए तो तुम सावधानी रखना।
पिता की शिक्षा ग्रहण कर पुत्र विदेश के लिए चला। दैवयोग/संयोग से वह अनीति पत्तन पहुँच गया। नगर के बाहर ही उसे चार सेठ मिले। उन्होंने उस व्यापारी पुत्र को कहा - हे श्रेष्ठिपुत्र ! यहाँ तुम्हारा व्यापार करना पूर्णरूपेण असम्भव है, इसलिए तुम अपना माल हमें दे जाओ। जब तुम वापिस लौटोगे उस समय हम तुम्हारे जहाज भर देंगे।
श्रेष्ठिपुत्र उनके चक्करों में आ गया और सारा माल लोगों को साक्षी बनाकर उनको सौंप दिया।
उसके बाद उसने नगर में प्रवेश किया। राजमार्ग पर ही उसे एक धूर्त मिला और उसने बहुत बढ़िया जूतों की जोड़ी भेंट करके हुए कहा - हे सेठ ! वापिस चलने के पूर्व आप मुझे प्रसन्न करके जाना। .
आगे चलते हुए एक धूर्त उसे और मिला, उसने कहा- हे सेठ ! मेरे पिता ने एक हजार रुपये में अपनी आँखें गिरवी रखी थी, वह मूल्य लेकर आँख देते जाना।
श्रेष्ठिपुत्र ने कहा - भविष्य में सब कुछ अच्छा होगा। वह श्रेष्ठिपुत्र नगर की शोभा को देखता हुआ वेश्यापुत्री के कोठे पर पहुँच गया। वहीं उसने अपने निवास स्थान बना लिया। उस वेश्यापुत्री के साथ उसका प्रेम हो गया। कुछ दिनों बाद उस श्रेष्ठिपुत्र ने अपने माल के क्रय-विक्रय के सम्बन्ध में सारी स्थिति उसके सामने रख दी। सुनकर वेश्यापुत्री ने कहा - तुमने जो कुछ किया वह अच्छा नहीं किया, फिर भी जिसमें तुम्हारी भलाई होगी, वही कार्य मैं करूँगी।
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शुभशीलशतक
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