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७६. मैत्री में विश्वासघात.
एक समय फलों से समृद्ध वन से मधुर भाषी एक वानर जंगलजंगल घूमता हुआ और फलों को खाता हुआ समुद्र के किनारे आया। वहाँ समुद्र के किनारे जल में लोट-पोट होते हुए एक मगरमच्छ को देखकर वानर ने कहा हे मित्र ! जीवन से दुःखी होकर तुम इस शिकार भूमि में कैसे आ गए?
यह सुनकर मकर ने कहा
यद्विहितं
स्थानं,
चित्तं,
यस्य तत्रैव रमते
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सर्वस्वर्णमयी पितृपर्यागतयोध्या,
अर्थात् - हे वानर ! जिसके लिए जिस कारण से जो स्थान निर्मित/ निर्धारित किया गया है, उसी स्थान पर उनका मन लगता है, वह स्थान प्रियं लगता है। कहा भी है :
यस्य
तत्र नान्यत्र
यद्धेतवे
लङ्का, न मे लक्ष्मण ! निर्धनापि अर्थात् - हे लक्ष्मण ! पूर्ण रूप से सोने से निर्मित लंका मेरे मन को अच्छी नहीं लगती। मुझे तो वंश-परम्परा से चली आ रही और जहाँ मेरे पिताश्री का राज्य था, वह अयोध्या लंका के सामने वैभवहीन होने पर भी सुखकारी प्रतीत होती है । कहा भी है :
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कृतम् । वानर!॥
धणासा य।
जणणी जम्मुप्पत्ती, पियसंगो जीवियं पच्छिमनिद्दा वरकामिणी, सत्तवि दुक्खेण मुच्चंते ॥
अर्थात् - माता, जन्मस्थान, प्रियजनों की संगति जहाँ जीवन की उम्मीदें बनी हुई हैं, धनार्जन की आशा है, पिछले पहर की निद्रा और जहाँ श्रेष्ठ प्रियतमा रहती है, ऐसे सात स्थान अत्यन्त कष्ट पड़ने पर ही छोड़े जाते हैं ।
आपके दर्शन से आज मेरा जन्म सफल हुआ। कहा भी है :
शुभशीलशतक
रोचते ।
सुखावहा ॥
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