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पण्डित के मुख से अपने ऊपर व्यंग्य सुनकर राजा ने चिन्तन किया कि यह पण्डित मधूक वृक्ष के रुदन का उपयुक्त कारण बता रहा है। वास्तव में मेरे पास धन होने पर भी मैं सत्पात्र को दान नहीं देता हूँ, यह गलत है। अपनी गलती स्वीकार कर उसी दिन से वह सत्पात्रों को दान देने लगा। ७८. सुदर्शन का दान और शील.
चम्पापुरी में जिनदास नामक सेठ रहता था। उसके घर में भैंसों के पाडा-पाडियों की देख-रेख करने वाला सुभग नाम का नौकर था। एक दिन वह सुभग भैंसों को चराने के लिए जंगल में गया। वहाँ उसने देखा कि भयंकर शीत ऋतु में भी जंगल के मध्य में वस्त्ररहित मुनि महाराज कायोत्सर्ग ध्यान में स्थित हैं। उसने विचार किया - 'ऐसी भयंकर ठण्ड में, जंगल में साधु ध्यान में खड़े हैं, क्या उनको ठण्ड नहीं लगती होगी? अवश्य लगती होगी। ऐसा चिन्तन कर उसने अपना कम्बल मुनि महाराज को ओढ़ा दिया।' इस करुणा भावना से उसने पुण्य का उपार्जन किया।
मृत्यु होने पर वह सेठ के यहाँ पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। नाम सुदर्शन रखा गया। नाम के अनुरूप ही उसका सौन्दर्य था। क्रमशः वह युवावस्था को प्राप्त हुआ। उसके रूप-सौन्दर्य से मोहित होकर राज-पुरोहित की पत्नी कपिला और राज-रानी अभया उस पर दिल न्यौछावर कर बैठी। दोनों अपनी वासना की पूर्ति के लिए समय की तलाश में थी।
एक रोज उन्हें ज्ञात हुआ कि आज पौषधशाला में पौषधव्रती के रूप में सुदर्शन अकेला ही है। ऐसा सोचकर उसका अपहरण कर अपने स्थान पर लाकर, दोनों ने अपनी काम-वासनाएँ जाहिर की। किन्तु वह पौषधव्रत में रहा हुआ सुदर्शन अनुकूल परीषह समझ कर ध्यानावस्थित हो गया। अनेक प्रकार की कुचेष्टाएँ करने पर भी वह चलायमान नहीं हुआ तो दोनों ने होहल्ला मचाया - 'देखो! ये सेठ का पुत्र धर्म का ढोंग करते हुए हमें बरबाद करने को तुला है।' राज-सैनिकों ने सुदर्शन को पकड़ लिया। सुबह राजदरबार में उसके अपराध की फहरिस्त सुनाई गई। संगीन अपराध मानकर राजा ने उसको सूली पर चढ़ाने का आदेश दे दिया। उसके सद्भाग्य और 112
शुभशीलशतक
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