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पासिल ने कहा - हे देवी माता! यदि आप प्रसन्न हैं तो आप ऐसा वर दीजिए कि त्रिभुवन विहार के समान नवीन मन्दिर का निर्माण करवा सकू।
देवी ने कहा - तथास्तु।
पासिल ने जो सीसा की खान खरीदी थी। देवी ने उसे चाँदी के रूप में परिणत कर दिया। वह समृद्धिमान बन गया। उसने उस धन से भगवान् नेमिनाथ का नवीन प्रासाद बनवाया।
मन्दिर और बिम्ब की प्रतिष्ठा के अवसर पर उसने पाटण जाकर, श्रावक छाण्डा की पत्री को अपनी बहन के रूप में अंगीकार कर प्रतिष्ठा के समय आमन्त्रित किया। उस समय उसने उसे सम्मानित भी किया। प्रतिष्ठा होने पर संघ भक्ति के समय उसने सबसे पहले गुरु महाराज को आदर-सत्कार देकर कम्बली ओढ़ाई। उसके पश्चात् समस्त श्रीसंघ को आभूषणों के साथ श्रेष्ठ वस्त्र पहनाकर सम्मानित किया। छाण्डा की पुत्री को श्रेष्ठ वस्त्रों से सुशोभित करते हुए कहा - तुम से बढ़कर मेरी कोई बहन नहीं है । तुम्हारे ही कारण इस नवीन मंदिर का मैं निर्माण करवा सका, इसलिए इस मंदिर के मण्डप का नाम भी तुम्हारे नाम पर ही रखना चाहता हूँ, तुम मुझे आज्ञा प्रदान करो।
उस बहन ने स्वीकृति प्रदान की। उसी समय प्रतिष्ठाकारक गुरु-महाराज ने यह पद्य कहागोगाकस्य सुतेन मन्दिरमिदं श्रीनेमिनाथप्रभोस्तुङ्गं पासिलसंज्ञकेन सुधिया श्रद्धावता मन्त्रिणा। शिष्यैः श्रीमुनिचन्द्रसूरिसुगुरोर्निर्ग्रन्थचूडामणेादीन्द्रैः प्रभुदेवसूरिगुरुभिर्नेमेः प्रतिष्ठा कृता॥
अर्थात् - मंत्री गोगा के पुत्र बुद्धिमान पासिल ने श्री नेमिनाथ भगवान् का जो विशाल मन्दिर बनवाया है और उसकी प्रतिष्ठा निर्ग्रन्थ चूडामणि सुगुरु श्री मुनिचन्द्रसूरि के शिष्य वादीन्द्र श्री देवसूरिजी महाराज के हाथों से भगवान् नेमिनाथ मूर्ति की प्रतिष्ठा हुई है। शुभशीलशतक
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