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दोनों देवों में बात आगे बढ़ी और दोनों ही उसका परीक्षण करने के लिए मनुष्य लोक में आए। एक ने सर्प का रूप धारण कर हल चलाते हुए उसके पुत्र को डस लिया। पुत्र चेतना-रहित होकर जमीन पर गिर पड़ा। अपनी पुत्र की इस प्रकार की मरणासन्न दशा देखकर भी उसके पिता आदि परिवार ने शोक-सूचक रोना-धोना नहीं किया।
उसी समय दूसरे देव ने मनुष्य का रूप धारण कर गोपाल को कहागोपाल एवं उसके परिवार के लोगों! यह मैं क्या देख रहा हूँ? आपका पुत्र मृत्यु की गोद में चला गया और आप लोग रुदन भी नहीं कर रहे हैं।
पिता ने उत्तर देते हुए कहा - अनाहूतो मया यातो, न मया प्रेषितो गतः। यथाऽऽयातस्तथा यातः का तत्र परिवेदना ॥
अर्थात् – ना मैंने इसको बुलाया था और न मेरे कहने पर गया है । जैसा आया था वैसा ही चला गया। इसमें मानसिक वेदना या रोना-धोना क्या है?
उसकी माता ने कहा - एकवृक्षसमारूढा, नानारूपा विहङ्गमाः। प्रातर्दिशो दिशं यान्ति, का तत्र परिवेदना॥
अर्थात् - एक वृक्ष पर अनेक जातियों के पक्षी चारों दिशाओं से आकर रात्रि निवास करते हैं और प्रातः होने पर वे पक्षी अपनी इच्छानुसार दसों दिशाओं में चले जाते है। जिस प्रकार वृक्ष को पीड़ा नहीं होती, उसी प्रकार हमें मनोवेदना क्यों हो?
कालक की पत्नी ने कहा - पृथक्पृथस्थिते काष्ठे, अपरे तटिनीपतौ। संयुज्येते वियुज्येते, तत्र का परिदेवना॥
अर्थात् - समुद्र के किनारे अनेक प्रकार के काष्ठ पृथक्-पृथक् रूप से हैं, किसी का किसी के साथ संयोग होता है, किसी का किसी के साथ
शुभशीलशतक
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