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पर पानी छिड़का था, चौथे पर नहीं, अत: आज भी नगर का चौथा दरवाजा बंद ही दृष्टिगोचर आ रहा है।
सुभद्रा के कायोत्सर्ग के प्रभाव से उसके धर्म की महती प्रशंसा हुई, सुभद्रा के ससुराल पक्ष ने भी अपने परम्परा-धर्म को छोड़कर सुभद्रा के धर्म को स्वीकार किया। अब वह सारा परिवार मिथ्यात्व का त्याग कर, सम्यक्त्व को धारण कर, देव-गुरु धर्म की आराधना करता हुआ पुण्य का उपार्जन करने लगा। ६२. गृहस्थ-जीवन में निर्मोहिता.
सुस्थित नामक ग्राम में गोपाल नाम का कौटुम्बिक रहता था। उसके गुणवती नाम की पत्नी थी। उनके पुत्र का नाम कालक था और पुत्रवधु का नाम कामदेवी था। परिवार का प्रत्यके सदस्य आपस में इतना स्नेहशील था कि किसी के बिना कोई भी रहना नहीं चाहता था। इसी कारण सभी लोग सम्मिलित परिवार के रूप में रहते थे और किसी भी प्रकार की अर्थवांछना के वशीभूत होकर परदेश जाना भी पसन्द नहीं करते थे।
एक समय इसी ग्राम में आचार्य धर्मघोषसूरिजी पधारे और उन्होंने धर्मदेशना देते हुए संसार की अनित्यता दिखाते हुए कहा -
एगोऽहं नत्थि मे कोइ, नाहमन्नस्स कस्सई। एवमदीणमणसो,
अप्पाणमणुसासई॥ अर्थात् - मैं एकाकी हूँ, मेरा कोई नहीं है और न मैं किसी का हूँ। इस प्रकार अदैन्य मन के साथ अपनी आत्मा को अनुशासित करें।
एक समय वर्षाकाल में खेत में हल चलाने के लिए गोपाल अपने कुटुम्ब के साथ गया।
इसी बीच में स्वर्ग में रहे हुए किसी देव ने दूसरे देव से कहा - आज के इस युग में गोपाल कुटुम्ब के साथ रहता हुआ भी जिस अनासक्त/निर्मोही भाव से रहता है, उस प्रकार का कोई दूसरा व्यक्ति दृष्टिगोटर नहीं होता।
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शुभशीलशतक
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