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५९. मुनि का आत्मालोचन के साथ सत्य भाषण.
किसी नगर में कोई मुनिराज भिक्षा/गौचरी के लिए किसी गृहस्थ के घर में गये। उपासक ने उन मुनिराज को नमस्कार कर पूछा - भगवन् ! आप त्रिगुप्तिगुप्त (मनोगुप्ति, वाग्गुप्ति, कायगुप्ति से सुरक्षित) हैं?
मुनिराज ने कहा- मैं गुप्तियों से गुप्त नहीं हूँ। उपासक ने पूछा – यह कैसे?
मुनि ने कहा - एक समय, मैं किसी के घर भिक्षा के लिए गया। उस समय उस गृह के मालकिन के वेणी दण्ड को देखकर मुझे अपनी पत्नी का स्मरण आ गया था। इसी कारण मैं मनोगुप्ति का रक्षण नहीं कर सका।
पुन: एक दिन भिक्षा के लिए मैं किसी सेठ के घर गया था। उसने सन्मानपूर्वक मुझे भिक्षा में कदली-फल (केले) प्रदान किये।
तत्पश्चात् किसी अन्य घर में भिक्षा के लिए गया उसने मुझे पूछा - उस सेठ ने आपको क्या दान में दिया? __ मैंने सहजभाव से कह दिया - उसने मुझे केले प्रदान किये।
वह व्यक्ति उस सेठ का विरोधी और दुष्ट स्वभाव का था, इसलिए उसने राजा के यहाँ जाकर चुगली खाई। हे देव! आपके बगीचे में लगे हुए केले श्रीद सेठ के यहाँ चले जाते है।
राजा ने कहा - इसकी जानकारी कैसे हो सकती है?
चुगलखोर ने कहा - उस श्रीद सेठ ने वे केले मुनि को प्रदान किये हैं। ऐसा मैंने मुनिराज के मुख से सुना है। इस प्रकार के सर्वदा फल देने वाले केले आपके बगीचे के अतिरिक्त कहीं हो नहीं सकते।
कानों के कच्चे राजा ने यह सुनकर उस श्रीद सेठ को दण्डित किया, इस कारण से मेरे में वाग्गुप्ति भी नहीं है । वाग्गुप्ति के अभाव के कारण ही वह सेठ व्यर्थ में ही दण्डित हुआ। 82
शुभशीलशतक
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