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एक समय जंगल में थकावट के कारण मैं विश्राम करने लग गया था, उसी समय मुझे नींद आ गई। वहीं (उसी जंगल में) एक सार्थपति आकर ठहरा । रात्रि में उसने अपने साथियों से कहा - सुबह जल्दी ही यहाँ से चलेंगे, इसलिए खाद्य सामग्री तैयार कर लो।
सार्थवाह की बात सुनकर सब लोग खाना बनाने में लग गये। एक बटोही ने अंधकार के कारण एक किनारे जहाँ आराम करते हुए मेरा सिर था, वही पत्थर रखकर चूल्हा बनाया, आग जलाई। उससे मेरा सिर जल गया, इसी कारण मेरे में कायगुप्ति भी नहीं है। इन तीनों गुप्तियों का रक्षण नहीं करने के कारण मैं भिक्षा के योग्य भी नहीं हूँ।।
मुनि के मुख से इस प्रकार सत्यभाषण सुनकर सेठ ने हृदय में अत्यन्त प्रसन्नता अनुभव की और श्रद्धा-भक्तिपूर्वक उनको अन्न दान दिया।
मुनि के सत्य भाषण का प्रशंसा करने पर उस सेठ ने अनुत्तरविमानवासी देव का सुख अर्जन किया। मुनिराज भी अपनी आत्मनिन्दा करते हुए दीर्घ काल तक चारित्र का पालन करते हुए स्वर्गवासी हुए। ६०. झूठा कलंक देना भावि-जीवन के लिए खतरनाक है.
नो चेव भासिअव्वं, अत्थिणा दुक्खकारणं। अलियं अभक्खाणं, पेसुन्नं मम्मवेहाई॥
अर्थात् - अर्थिजनों को दुःख के कारणभूत, झूठ, दोषारोपण, चुगली, पीठ पीछे निन्दा और मर्मभेदन वाक्य कभी भी नहीं बोलने चाहिए, क्योंकि ये दु:ख के कारण हैं।
संतो वि हु वत्तव्वो, परस्स दोसो न होई विबुहाणं। किं पुण अविजमाणो, पयडो छन्नो अ लोअस्स।
अर्थात् - बुद्धिमानों को दूसरे में दोष होने पर भी लोगों के सम्मुख नहीं कहना चाहिए। दोष-रहित होने पर भी लोगों के सम्मुख प्रच्छन्न रूप से या प्रकट रूप से दोष लगाना कदापि उपयुक्त नहीं है।
शुभशीलशतक
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