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मूर्ख लोग उस वेगवती की बातों में आ गए और उस मुनिराज का सत्कार बन्द कर दिया।
मुनि ने भी अपने प्रति लोगों की विरक्ति देखकर पता लगाया तो मालूम हुआ कि उन पर उक्त झूठा कलंक लगाया गया है।
मुनि ने उसी समय यह निर्णय लिया - इस झूठे कलंक से जिनशासन की घोर निन्दा होती है और निमित्त कारण मैं बनता हूँ, इसलिए मैं यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि 'जब तक मैं इस झूठे कलंक से मुक्त नहीं होऊँगा तब तक भोजन/गौचरी ग्रहण नहीं करूँगा।' ऐसी प्रतिज्ञा कर मुनिराज कायोत्सर्ग ध्यान में स्थिर हो गये।
उसी समय शासन देवता जागृत हुए और उन्होंने - वेगवईए देहे वेअणा समुट्ठिआ तिव्वा। पाउब्भूया अरई सूणं वयणं च सहसत्ति॥
वेगवती के शरीर में अचानक ही भयंकर वेदना पैदा कर दी और वह तड़फड़ाने लगी। तड़फड़ाते हुए उसे अचानक ही यह ध्यान आया कि मैंने साधु पर झूठा दोषारोपण किया था। पश्चात्ताप करती हुए वह साधु के पास गई और सब लोगों के सामने ही उसने कहा – 'इन साधु महाराज पर मैंने झूठा कलंक लगाया है, उसका कारण यही था कि मैं इनकी पूजाप्रतिष्ठा को सहन नहीं कर सकी। इसलिए आप लोग सब मुझे माफ करें।' यह कहती हुए वह मुनि के चरणों में गिर पड़ी।
शासनदेव ने तत्काल ही उसे स्वस्थ कर दिया। मुनि महाराज से धर्म सुनकर उसने दीक्षा ग्रहण की। चिरकाल तक संयम पालन किया। स्वर्गवास होने पर वह सौधर्म देवलोक में देवी के रूप में उत्पन्न हुई। वहाँ से वह च्युत होकर राजा जनक की पुत्री बनी । क्रमशः उसका विवाह दशरथनन्दन रामचन्द्र से हुआ, रावण ने उसका अपहरण किया, युद्ध में रावण को पराजित कर रामचन्द्र सीता को वापस लाए, उसके पश्चात् लोगों ने उसके चरित्र पर संदेह प्रकट किया गया, अग्नि प्रवेश करने पर वह शुद्ध सती सिद्ध हुई। भविष्य में सती सीता ने जिनशासन की बहुत प्रभावना की।
शुभशीलशतक
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