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विअरइ अब्भक्खाणं, इअरस्स वि जो जणस्स दुबुद्धी। सो गरिहिजइ लोए, लहइ दुक्खाइं तिक्खाई॥
अर्थात् - जो दुर्बुद्धि दूसरों की पीठ पीछे निन्दा करता रहता है, दोषारोपण करता रहता है, वह उग्र दुःखों को प्राप्त करता है।
जो पुण जईण समिआण, सुद्धभावाण बंभयारीणं। अब्भक्खाणं देई, मच्छरदोसेण दुट्ठमई॥
अर्थात् - जो यति के दशविध धर्म का पालन करता है, समितियों का पालन करता है, शुद्धभावपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसके ऊपर मात्सर्य के कारण कोई दुष्टमति झूठा कलंक लगाता है।
निव्वत्तिऊण पावं, पावेइ सो दुहमणंतं। सीआ इव पुव्वभवे, मुणि - अब्भक्खाण-दाणाउ॥
अर्थात् - उस पाप की आलोचना न करने के कारण वह आगामी भवों में उस पाप के कारण अनन्त दुःख को प्राप्त करता है, जिस प्रकार सीता ने पूर्वभवों में मुनि पर झूठा दोषारोपण किया था, उसी कारण सीता के भव में उसने दुःख को प्राप्त किया।
इसी भरत क्षेत्र में मिणाला-कुण्डपुर नगर में श्रीभूति नाम का पुरोहित रहता था। उसकी पत्नी का नाम सरस्वती था और पुत्री का नाम वेगवती थी।
उस नगर में एक समय निरतिचार रूप से महाव्रतों का पालन करते हुए एक मुनिराज पधारे। उन्होंने नगर के बाहर उद्यान में रहते हुए प्रतिमाधारण (विशेष कायोत्सर्ग ध्यान) की। लोग भक्तिपूर्वक वहाँ वन्दन करने के लिए आने लगे।
साधु की इस प्रकार पूजा सत्कार देख कर पुरोहित की पुत्री वेगवती मात्सर्य के कारण झूठ-मुठ ही कहने लगी - अरे! आप लोग इस मुण्डपाखण्डी की पूजा क्यों करते हो? पूजनीय तो केवल ब्राह्मण-वर्ग ही है। इस पाखण्डी को तो मैंने एक औरत के साथ क्रीड़ा करते हुए देखा था। ऐसा झूठा कलंक उस मनि पर लगाया।
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शुभशीलशतक
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