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लक्ष्मीपुर में चन्द्र नाम का राजा राज्य करता था, वह दयावान था। उसके यहाँ ईंधन लाने वाला एक कर्मचारी/नौकर था। एक दिन राजा ने देखा कि उस नौकर की एक आँख में फूला पड़ा हुआ है। राजा ने करुणा उत्पन्न होने से अपने ५०० वैद्यों के आगे कहा - इस धन-रहित नौकर के नेत्रों का फूला आप निकाल दें।
उनमें से एक वैद्य ने जीर्ण-शीर्ण पुरानी कुटिया के तीक्ष्ण और पुराने तृणों को मँगवाकर उनको जलाया, उसकी भस्म बनाई और उस गरीब नौकर की आँखों में उस भस्म का अंजन लगाया। दो-तीन बार अंजन करने पर उसकी आँखों का फूला समाप्त हो गया।
यह देखकर राजा हृदय में प्रसन्न हुआ और परीक्षण हेतु अपने नेत्रों में नकली फूला दिखा कर वैद्य से कहा - मेरे आँखों में फूला पड़ गया है, इसको दूर करें।
वैद्य ने स्वीकार किया और मोती आदि श्रेष्ठ जाति के रत्नों की भस्म बनाकर राजा को दी और कहा - इसको आँखों में लगाने से यह फूला दूर हो जायेगा।
यह देखकर राजा ने कहा - दीन-हीन गरीब का तो तृण भस्म से ही फूला दूर हो गया और मेरा फूला दूर करने के लिए मँहगें रत्नों की औषध का प्रयोग क्यों? हे वैद्य! इस गरीब के फूले को दूर करने में तो आपने दूसरी औषध का प्रयोग किया था और मेरे लिए आप बहुमूल्य औषध का प्रयोग कर रहे हैं।
वैद्य ने उत्तर दिया - राजन् ! जो जैसा होता है, उसके लिए उसी प्रकार का उपचार करना पड़ता है। गरीब का उपचार कोडियों में होता है
और बड़ों का उपचार उनके अनुरूप महंगी औषधियों से करना पड़ता है। नहीं तो बड़ा आदमी उस औषध पर विश्वास भी नहीं करेगा।
राजा ने पूर्ववत् अपने नेत्र दिखाते हुए कहा - वैद्य आपने ठीक किया। आप देश-काल को ध्यान में रखकर उचित व्यवहार करने वाले हो। राजा ने उस वैद्य को अलंकार आदि प्रदान कर सम्मानित भी किया।
शुभशीलशतक
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