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घूमता हुआ कामसेना नामक वेश्या के घर पर पहुँच गया और अपने मन की व्यथा उसके सामने प्रकट कर दी।
वेश्या ने कहा- तुम यहाँ के नज़र नहीं आते हो, बाहर के लगते हो। यहाँ बहुत धूर्त रहते हैं और परदेसियों को छलते है । यदि तुम मेरे कथनानुसार कार्य करो और मेरी बुद्धि के अनुसार चलो तो तुम्हे सारा चन्दन वापस मिल सकता है।
मेघ ने कहा - तुम जैसा कहोगी, वैसा ही करूँगा।
वेश्या ने कहा - 'तुम वहाँ वापस जाओ। चन्दन को अपने अधीन करते हुए उन चन्दन के ग्राहकों को कहो कि पहले आप कण लाओ जिससे कि मैं उनके साथ वजन करके चन्दन दूंगा।' यह सुनकर वे धूर्त ज्वार के कण लावें तो तुम कहना – 'हम तो परदेसी हैं। सोने के भाव में चन्दन बिकता है, यह जानकर यहाँ आये हैं। आप लोगों ने कण कहकर इस चन्दन को ग्रहण करने का सौदा किया है तो मैं 'कण' शब्द से मोती के कण समझा। आप मोती के कण लाईये । ज्वार तो हमारे नगर में भी बहुत हैं।' इस प्रकार तुम्हारे कहने पर विवाद पैदा हो जायेगा और उसी समय राजकीय पुरुष तुम्हें और उन व्यापारियों को राजा के समक्ष ले जायेंगे। राजा न्यायप्रिय है। अतः तुम्हारे चन्दन को मोतियों के साथ तौलकर के वह तुम्हें देगा।
वेश्या की कही हुई बातों को अंगीकार करके उन धूर्तों के साथ उसी प्रकार का झगड़ा किया, वाद-विवाद किया, हाथापाई हुई। राजपुरुष राजा के पास ले गये। राजा के द्वारा न्याय करने पर वह मेघ प्रसन्न हुआ और सोने के भाव में चन्दन को बेचकर करोड़पति बना। खुशी में उसने बहुत सा धन कामसेना वेश्या को देकर उसे प्रसन्न किया।
वहाँ से मेघ पुनः अपने नगर में आया। पिता से मिला, पिता भी बहुत प्रसन्न हुए। सात क्षेत्रों में अपनी लक्ष्मी का उपयोग करता रहा। अपने पिता का स्वर्गवास होने पर वह घर का मालिक बना। दान देकर धन का सदुपयोग किया। शत्रुञ्जय आदि महातीर्थों की यात्रा कर मुक्तिगमन योग्य पुण्य का उपार्जन किया।
शुभशीलशतक
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