________________
येन येन हि भावेन, युज्यते यन्त्रवाहकः। तेन तन्मयतां याति, विश्वरूपो मणी यथा॥
अर्थात् - जिन-जिन भावों से तन्मय होकर यंत्रचालक नगों की कटाई करता है, उसी प्रकार की मूल्यवान मणि बन जाती है।
इलिका भ्रमरीध्यानात, भ्रमरी जायते यथा। तथा ध्यानानुरूपः स्यात्, जीवोऽशुभशुभात्मवान्॥
अर्थात् - जब इलिका भ्रमरी के गुंजारव की ओर ध्यान केन्द्रित कर लेती है, तब वह मरकर स्वयं ही इलिका के स्थान पर भ्रमरी बन जाती है। प्राणी ध्यान के अनुरूप ही शुभ-अशुभ कर्मों का बन्धन करता है।
अत: हे राजन्! मरुस्थल का वर्णन करते-करते यह कवि स्वयं ही रोग मुक्त हो गया। राजा ने उस वृद्ध वैद्य का सम्मान किया। कहा है -
अलङ्करोति हि जरा, राजामात्यभिषग्यतीन्। विडम्बयति
पण्यस्त्री-मल्लगायकसेवकान्॥ अर्थात् - राजा, अमात्य/मन्त्री, वैद्य और व्रतियों के लिए वार्धक्य अवस्था भूषण स्वरूप होती है, जबकि वेश्या, पहलवान, गायक और सेवकों के लिए बुढ़ापा विडम्बना दायक होता है। ३४. व्यापार ही जाति-बोधक होता है.
जन्मना तु ध्रुवं वर्य-मवर्यं जायते कुलम्। प्रायो भवति मानां, क्रियया विप्रवजने ॥
अर्थात् - जन्म से श्रेष्ठ कुल होने पर भी मर्त्य लोग अपने अपने आचार-व्यवहार से विप्र के समान कुलीन और अकुलीन बन जाते हैं।
किसी गाँव में एक विद्वान् ब्राह्मण रहता था। वह यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन आदि निरन्तर षट्कर्म किया करता था। उसे अपना विश्वास का स्थान मान कर एक तपस्वी अपनी धोती उसके यहाँ छोड़ कर तीर्थ-यात्रा के लिए चला गया। वह तपस्वी देवदत्त तप के प्रभाव से दीर्घायुषी
42
शुभशीलशतक
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org