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होकर भी तीर्थयात्रा किया करता था । एक समय उस यज्ञपाठी ब्राह्मण ने अपनी मृत्यु निकट जानकर अपने पुत्र को कहा - 'हे पुत्र ! यह धोती तपस्वी देवदत्त यहाँ छोड़ गया है, वह कभी भी आकर माँगे तो यह धोती उसे दे देना । '
पिता की मृत्यु के पश्चात् वह ब्राह्मण पुत्र अपना निर्वाह करने में भी असमर्थ हो गया और कुम्हार का धंधा करने लगा ।
इधर वह देवदत्त तपस्वी धोती लेने के लिए वहाँ आया और उस यज्ञपाठी ब्राह्मण का घर पूछने लगा । पूछते-पूछते वह वहाँ पहुँचा, किन्तु उस घर में कुम्हार का काम होते देखकर वह उल्टे पैर पुनः तीर्थयात्रा के लिए चल दिया ।
कुम्हार के काम से भी उसका गुजारा न होने पर वह माल ढोने वाला बन गया। इधर वह तपस्वी देवदत्त वापिस धोती के लिए वहाँ आया और मकान पूछते-पूछते वहाँ पहुँचा किन्तु वहाँ भार-वाहक को देखकर उल्टे पैर वापिस तीर्थयात्रा के लिए चल दिया । इधर वह ब्राह्मणपुत्र अर्थात् भारवाहक अन्त समय में अपने पुत्र को कहने लगा- हे पुत्र ! तपस्वी की यह धोती परम्परा से अपने यहाँ सुरक्षित है, वह कभी आवे तो उसे दे देना।
इधर भारवाहक वह ब्राह्मणपुत्र संयोग से राजा का सेवक बन गया । पहले के समान ही तपस्वी वहाँ आया और उसको अन्य कार्य करते देखकर वह पुन: यात्रा के लिए चल पड़ा ।
वह ब्राह्मण का पौत्र भी मृत्यु को प्राप्त हुआ और उसका पुत्र ग्रामहट्टक अर्थात् ग्राम में व्यापार करने वाला बना । वह तपस्वी पुन: वहाँ आया और उसको इस प्रकार का कार्य करते देख कर मन में खिन्न हुआ और अपनी धोती को संभाल कर, पुन: वहीं छोड़कर यात्रा के लिए चल पड़ा।
वह ग्रामहट्टक वैदिक ब्राह्मणों के सम्पर्क से चतुर्वेदी ब्राह्मण बन गया और यजन, याजन करने लगा ।
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शुभशीलशतक
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