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नजर आई। योगी विचार करने लगा – 'धन जाने के भय से चेलाजी भयकारी मार्ग पर चलने को तैयार नहीं थे। हम तो तपस्वी साधुगण है, अत: धन का क्या लेना-देना।' ऐसा सोचकर योगी ने उस वासनिका (रुपये रखने की थैली) को उसकी अनुपस्थिति में कुएँ में डाल दिया। शिष्य नगर से लौटकर आया और वासनिका को नहीं देखकर बोला - 'जिस मार्ग पर इच्छा हो चलिए, मुझे कोई दिक्कत नहीं है।' तत्पश्चात् दोनों ही निर्ग्रन्थ (अपरिग्रही) होकर उपद्रवकारी मार्ग पर चले। धन को ही तपस्वीजनों के लिए क्लेश और भय का कारण मान कर दोनों निःस्पृह हो गये। अन्त में श्वेताम्बर समाज के दमघोषसूरि के पास उन दोनों ने दीक्षा ग्रहण की और तपस्या करते हुए स्वर्ग को प्राप्त हुए । क्रमशः वे दोनों मुक्ति को जायेंगे। २९. धर्मशालादि निष्पादन पुण्य कार्य है.
एक गाँव में भीम नाम का सज्जन रहता था। अपने मकान-निर्माण हेतु उसने बढ़िया लकड़ी मँगवायी। उस लकड़ी को देखकर भीम की पत्नी बड़ी प्रसन्न हुई और उसने कहा - 'बहुत सुन्दर लकड़ी है, इस लकड़ी से घर बनने पर घर ही स्वर्ग के समान लगेगा, किन्तु यह कार्य केवल अपने घर तक ही सीमित है। यदि इस बढ़िया लकड़ी का उपयोग धर्मशालादि बनाने में धर्मकार्यों में लगाएँ तो बहुत अच्छा होगा।'
भीम को अपनी पत्नी की बात पसन्द आई और उसने पूछा - धर्मकार्यों के लिए इस लकड़ी का उपयोग कहाँ हो सकता है?
भीमपत्नी ने उत्तर दिया - यदि धर्मशाला बनाई जाए तो बहुत पुण्य होगा। कहा भी है -
वसही-सयणासण-भत्त-पाण-भेसज्ज-वत्थ-पत्ताइ। जइवि न पज्जत्तधणो थोवा वि हु थोवयं देइ॥
अर्थात् - आवास-स्थान, सोने का स्थान, भोजन-पानी, औषध, वस्त्र आदि श्रेष्ठ कार्यों में उपयोग किया जा सकता है। अपने पास ज्यादा धन नहीं है, थोड़ा है तो वह भी श्रेष्ठ कार्यों में लगाया जाए।
शुभशीलशतक
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