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शिवजी ने कहा
तुम सत्य कह रहे हो । स्वकृत कर्म ही सुखदुःख के कारण होते हैं । कहा भी है .
यादृशं
तादृशं
क्रियते कविवन्नूनं,
मृग-म
माता
गङ्गासमं तीर्थं फलति
अर्थात् - पूर्व में व्यक्ति जिस प्रकार का शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसी प्रकार की उसकी मति बन जाती है और उसी के अनुसार वह सुखदुःख को प्राप्त करता है ।
३२.
-मरीचिका में माता-पिता का त्याग.
तीर्थं,
पिता
पुष्करमेव माता- तीर्थं पुन:
चित्तं,
कालेन,
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जायते
देहिभिर्वर्णनादिषु । सन्ततं जने ॥
-
अर्थात् - माता गंगा के समान तीर्थस्थल है और पिता पुष्कर तीर्थ के समान है। तीर्थों की यात्रा कालान्तर में फल देती है और मातृतीर्थ का फल सदैव और पुन: पुन: प्राप्त होता है ।
इस युक्ति को ध्यान में रखते हुए और माता - पिता की तीर्थस्थान करने की इच्छा को प्रधानता देते हुए एक ब्राह्मण-पुत्र अपने माता-पिता को कावड़ में बिठा कर तीर्थ यात्रा के लिए चल देता है । अनेक तीर्थों की यात्रा करते हुए वह मरुस्थली / मारवाड़ की धरती पर आता है। मारवाड़ की धरती पर चारों तरफ रेत के टीले-ही-टीले है । उस रेतीले प्रदेश में चलते हुए वह स्वयं को कावड़ के बोझ को उठाकर चलने में असमर्थ पाता है, उसे भंयकर प्यास भी लगती है किन्तु वहाँ जल नजर नहीं आता । मृग-तृष्णा के समान उसे उस रेतीले प्रदेश में जल की भ्रान्ति होती है और वह भागते हुए उस जल को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । भ्रान्ति भ्रान्ति ही रहती है । अपने को आगे चलने में असमर्थ समझ कर सबसे पहले अपने पिता को कावड़ में से नीचे उतार देता है ।
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पिता कहता है पैदल चल नहीं सकता। मुझे क्यों उतार रहा है ?
शुभशीलशतक
च।
पुनः ॥
अरे पुत्र ! मैं तीर्थयात्रा करने में असमर्थ हूँ,
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