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अर्थात् - भूतकाल में भी उर्वशी देवांगना के गर्भ से वशिष्ठ नाम के महामुनि हुए हैं, किन्तु वे अपने तप के बल से ब्राह्मण कहलाये, जन्मजात जाति का मानना व्यर्थ है ।
अतः
शीलं प्रधानं न कुलं प्रधानं, कुलेन किं शीलविवर्जितेन । बहवो जना नीचकुले प्रसूताः, स्वर्गं गताः शीलमुपेत्य वर्यम् ॥
अर्थात् - शील प्रधान ही आचार-व्यवहार से कुलीन होता है न कि किसी कुल में उत्पन्न होने से प्रधान होता है। यदि उत्तम कुल में जन्म ग्रहण कर भी ले और वह शीलरहित हो तो उस कुल का और कुलीनता का क्या? बहुत से नीचकुल में उत्पन्न हुए व्यक्ति भी श्रेष्ठ शील को धारण करके स्वर्ग को गये हैं ।
वह वेश्या-पुत्र भी क्रमशः अपनी योग्यता के बल पर बढ़ता हुआ द्विजों में मुख्य और वेदवित् कहलाने लगा।
२८.
धन ही भय का कारण है.
एक नगर से एक योगी अपने शिष्य के साथ दूसरे ग्राम जाने के लिए चला। मार्ग में रास्ते अलग-अलग जा रहे थे, उस समय योगी ने लोगों से पूछा - चन्द्रपुर की ओर कौन सा रास्ता जाता है ?
एक ने उत्तर दिया - यहाँ से दो मार्ग जाते हैं। एक मार्ग नजदीक पड़ता है और वह सीधा मार्ग है किन्तु उस रास्ते पर चोर, डकैतों का भय है। दूसरा मार्ग विषम है किन्तु वह सब प्रकार से भयों से रहित है ।
उस पर योगी ने विचार किया कि हम द्रव्यरहित हैं, अत: उपद्रवकारी मार्ग होते हुए भी सरल और नजदीक है, उसी मार्ग पर चला जाए। किन्तु योगी-शिष्य उस मार्ग पर जाना नहीं चाहता था क्योंकि उसके पास परिग्रह होने के कारण उसे भय था कि कहीं चोर लोग लूट न लें। योगी ने शिष्य के वचनों पर ध्यान न देते हुए भयकारी मार्ग को ही चुना और उस पर ही आगे बढ़ा। चन्द्रपुर पहुँचने के पश्चात् शिष्य किसी काम से नगर में गया हुआ था, उस समय में उसकी झोली ( वस्त्रों) के मध्य में रुपयों से भरी हुई थैली
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शुभशीलशतक
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