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आचार्य ने कहा - अतिशय प्रभाव युक्त पार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिमा के सम्मुख कोई महासती सुलक्षणा नारी खरल में घुटाई करे तो यह पारद स्थिर हो सकता है और स्वर्ण बन सकता है
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यह सुनकर नागार्जुन ने अपने पिता नागराज वासुकी का ध्यान एवं आराधन किया ।
नागराज प्रकट हुए और उन्होंने पूछा - किसलिए मुझे स्मरण किया? नागार्जुन ने कहा- अतिशय प्रभावशाली पार्श्वनाथ की प्रतिमा कहाँ प्राप्त होगी? बताईये।
वासुकी ने कहा- पूर्व में द्वारिका नगरी के अधिपति श्री कृष्ण ने भगवान् नेमिनाथ के मुख से पार्श्वनाथ की प्रतिमा का प्रभाव सुनकर, प्राप्त कर ७ वर्षों तक नियमित रूप से पूजन किया । द्वारिका नगरी का विनाश होने पर देवताओं ने वह प्रतिमा समुद्र के मध्य में विराजमान कर दी थी । कालान्तर में कान्तिपुर नगर का निवासी धनदत्त सेठ का जहाज समुद्र के मध्य में चक्कर खाने लगा। उस समय देव ने कहा - इसके अधोतल में भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्ति है और वह मूर्ति किसी सती औरत के द्वारा ७ कच्चे तंतुओं के बंधन से प्राप्त हो सकती है। उस व्यापारी धनदत्त ने वैसा ही किया और वह मूर्ति उसे प्राप्त हो गई । कान्तिपुरी नगरी में लाकर उसे विराजमान कर दिया । कहा हैमनोहरम्।
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पार्श्व
नाथबिम्बं
सुप्रभावमयं कान्त्यां पुरि जैन: पूज्य मानमस्ति जिनालये ॥
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अर्थात् - प्रभावपूर्ण भगवान् पार्श्वनाथ की वह मनोहर मूर्ति कान्तिपुर
के जिनालय में विराजमान और वहाँ के निवासियों द्वारा पूजित है ।
वासुकी के मुख से सुनकर नागार्जुन कान्तिपुर गया और उस प्रतिमा के अपहरण की योजना बनाने लगा, किन्तु वहाँ उसने देखा कि दर्शनार्थियों का दिन भर तांता लगा रहता है, अतः हरण करना संभव नहीं है । रात-दिन निगरानी करता रहा और मौका देखकर छल के द्वारा उस प्रतिमा का हरण कर लिया। वहाँ से उस प्रतिमा को लाकर सेढ़ी नदी के किनारे पर विराजमान
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शुभशीलशतक
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