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अक्खाण [र] सणी कम्माण मोहणी, हंत वयाण बंभवयं। गुत्तीण य मणगुत्ती, चउरो दुक्खेण जिप्पंति॥
अर्थात् - मोहनीय कर्म के उदय से कर्णेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय परवश होने के कारण मनोगुप्ति आदि के पालन न करने से विचक्षण व्यक्ति भी ब्रह्मचर्य भ्रष्ट हो जाता है और दुःख को प्राप्त करता है।
वासुकी नागराज रूप सौन्द्रर्यलुब्ध होकर रूप परिर्वतन कर राजकुमारी भोपाला के साथ भोग भोगने लगा। उनके पुत्र हुआ, जिसका नाम रखा गया नागार्जुन । पिता का वात्सल्यभाजन होने के कारण वह अन्न की अपेक्षा फलों के मूल और दलों का भोजन करता था। वनस्पति औषधियों के प्रभाव से वह सिद्ध-पुरुष और बलिष्ठ बन गया। उसकी प्रसिद्धी सुनकर प्रतिष्ठानपुर के नरेन्द्र सातवाहन राजा ने उसे बुलाया और अपना विद्या गुरु बना लिया। कहा भी है
विद्वत्वं च नृपत्वं च, नैव तुल्यं कदाचन। स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते॥
अर्थात् - समृद्धिशाली राजा और विद्वान् की समान तुलना नहीं की जा सकती। राजा अपने देश में ही पूजित होता है जबकि विद्वान् समस्त भूमण्डल में पूजित होता है।
श्री पादलिप्ताचार्य आकाशगामिनी विद्या के प्रभाव से व्योम यात्रा द्वारा सर्वत्र विचरण करते थे। उन आचार्य से यह आकाशगामिनी विद्या प्राप्त करने के लिए नागार्जुन पादलिप्त नगर में विराजमान पादलिसाचार्य की सेवा में आकर रहने लगा। वे आचार्य औषधियों का पैर में लेपन करने के बल से समय-समय पर अष्टापद, सम्मेतशिखर, शत्रुजय, गिरिनार और अर्बुदाचल के तीर्थस्थानों में विराजमान जिनेन्द्र देवों की वन्दना करने के लिए जाते रहते थे। यात्रा से वापिस लौटने पर नार्गाजन ने आचार्य के चरणों का जल प्रक्षालन किया। गन्ध-दृष्टि अत्यन्त बलवती होने के कारण नागार्जुन ने लेप में प्रयुक्त १०७ औषधियों का निर्णय कर लिया। उक्त १०७ औषधियों का चूर्ण बना कर पादलेप तैयार किया और गुरु के उपदेश तथा आम्नाय के बिना ही
शुभशीलशतक
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