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एक समय भविष्यकाल को देखते हुए गुरु महाराज ने भाषा-समिति को ध्यान में रखते हुए संकेत किया - 'सम्वत् १३१५, १३१६ और १३१७ में दुर्भिक्ष/अकाल पड़े।' उस भावी संकेत को समझ कर जगडू सेठ ने ग्रामग्राम और नगर-नगर में वणिक - पुत्रों को भेज कर धान्य का अपूर्व संग्रह कर लिया। दुष्काल के आने पर उसने बड़ी-बड़ी ११२ भोजनशालाएँ खोली । जिसमें प्रतिदिन १०,५०० व्यक्ति मुफ्त भोजन करते थे । अनाज के बिना अन्य राजा लोग भी दुःखी हुए। उनके दुःख को ध्यान में रखते हुए पत्तनाधिपति बीसलदेव राजा के पास ८,००० मूढ़क भिजवाए। (१०० मन का एक मूढ़क होता है) १२,००० मूढ़क हम्मीर राजा के पास भिजवाएँ ।
इसी समय जगडू के पास में गजनी का सुरताण धान्य की याचना के लिए आया । उस समय जगडू उनके समक्ष गया ।
हूँ ।'
सुरताण ने कहा - 'जगडू कौन है?' जगडू ने कहा
जगडू ने कहा कहा 'रंक निमित्त धान्य इनको दे दो ।'
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सुरताण ने कहा ‘न्याय से धान्य का दान करके तुमने जगत् का उद्धार किया है, इसलिए तुम ही जगत्पिता हो ।' पश्चात् सुरताण ने धान्य की याचना की।
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'मैं जगडू
'ग्रहण कीजिए।' उसने कोठार के अध्यक्ष को
यह सुनकर सुरताण ने कहा - 'रंक निमित्त धान्य मैं नहीं लेता, वापस जाता हूँ।'
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तब जगडू सेठ ने स्पष्ट करते हुए कहा 'रंक निमित्त का अर्थ २१,००० मूढ़क होता है।' सुरताण ने उतना धान्य स्वीकार किया ।
अट्ठ य मूढसहस्सा वीसलरायस्स बार हम्मीरे । इगवीसा सुरताणे तई, दिद्धा जगडू दुब्भिक्खे ॥ अर्थात् - दुर्भिक्ष के समय जगडू सेठ ने बीसलराज को ८,०००
शुभशीलशतक
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