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श्रीपालचरितम्
भाषाटीकासहितम्.
॥१०॥
यथा "पुन्नहिं लब्भइ एहु,” तो तत्कालं अइचंचलाए ।
अचंतगब गहिलाए, सुरसुंदरीए भणियं, हुंडं पूरेमि निसुणेह ॥ ७२ ॥ अर्थ-यह समस्या पद है (पुन्नहिं लब्भइ एहु) पुण्यसे यह मिले है समस्या पद दियों के अनन्तर तत्काल सुरसुंदरी कन्या बोली अहो मैं इस समस्याको पूरी करूं आप सुनो कैसी सुरसुंदरी है अतिशय चपल याने चंचल है और अत्यन्त गर्भसे गहली है ॥७२॥ यथा धनु जुवण सुवियड्डपण, रोगरहिय नियदेहु । मणवल्लह मेलावडउ, पुन्नहिं लब्भइ एहु ॥७३॥ ___ अर्थ-धन यौवन विचक्षणपना तथा रोगरहित अपना शरीर तथा मनोवल्लभ प्यारा जो पुरषादि उन्होंके साथ सम्बन्ध ये वस्तुसमूह पुण्यसे मिले है ॥ ७३ ॥
तं सुणिय निवोतुट्ठो, पसंसए साहु साहु उवज्झाओ।जेणेसा सिक्खविया, परिसावि भणेइ सच्चमिणं७४ ६] अर्थ-सुरसुंदरीका बचन सुनके राजा संतुष्टमान भए इस प्रकारसे प्रशंसा करते भए अहो इसका उपाध्याय पढ़ा
नेवाला गुरू बहुत अच्छा है जिसने इस पुत्रीको ऐसी सिखाई पढ़ाई तब सभाके लोग बोले हे महाराज यह सत्य है इसमें बिल्कुल झूठ नहीं है ॥ ७४ ॥ | तोरन्ना आइट्ठा, मयणा वि हु पूरए तं समस्सं । जिणवयणरया संता, दंता ससहावसारित्थं ॥७॥
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