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शत्रुजय पर्वत का परिचय ।
पक्की सडक बनी हुई है और दोनों तरफ वृक्षों की पंक्तियें लगी हुई हैं। इस पर्वत के सिद्धाचल, विमलाचल और पुण्डरिकगिरि आदि और नाम भी जैनसमाज में प्रचलित है । जैनग्रंथों में इस के २१ या १०८ तक भी नाम लिखे हुए मिलते हैं ! समुद्र के जलसे यह १९८० फीट ऊँचा है । पहाड कोई बहुत बडा या विशेष रमणीय नहीं है । परंतु जैनग्रंथ, माहात्म्य में इसे संसार भर के स्थानों से अत्यधिक बताते हैं । यों तो सेंकडों ही ग्रंथों में इस पर्वत की पवित्रता और पूज्यता का उल्लेख मिलता है परंतु धनेश्वर नाम के एक आचार्य का बनाया हुआ शत्रुजयमाहात्म्य नाम का एक खास बडा ग्रंथ ही संस्कृत में, इस पर्वत की महिमाविषयक विद्यमान है । इस ग्रंथ में, इस पहाड का बहुत ही अलौकिक वर्णन किया गया है । हिन्दुधर्म में जिस तरह सत्ययुग, कलियुग आदि प्रवर्तमान काल के ४ विभाग माने हुए हैं वैसे जैनधर्म में भी सुषमारक, दुःषमारक आदि ६ विभाग माने गये हैं। इन आरकों के अनुसार भारतवर्ष की प्रत्येक वस्तुओं के स्वभाव और प्रमाण आदि में परिवर्तन हुआ करते हैं । इस निमायानु सार शत्रुजय पर्वत के विस्तृत्व
और उच्चत्व में भी परावर्तन होता रहता है । माहात्म्य में लिखा है कि शत्रुजयगिरि का प्रमाण, प्रथमारक में ८० योजन, दूसरे में ७०, तीसरे में ६०, चौथे में ५०, पाँचवे में १२ और छठे में केवल ७ हाथ जितना होता है । अंग्रेजों के पवित्र स्थान अमोना की तरह प्रलय काल में इस पर्वत का भी सर्वथा नाश न होने का उल्लेख इस माहात्म्य में किया हुआ है।
इस पर्वत का पौराणिक-पद्धत्ति पर प्राचीन इतिहास भी, इस माहात्म्य में विस्तार पूर्वक लिखा है । इस काल के तृतीयारक के अंत में जैनधर्म के प्रथम-प्रवर्तक श्रीऋषभदेव भगवान् अवतीर्ण हुए । जैनधर्म में जो २४ तीर्थंकर माने जाते हैं उन में ये प्रथम तीर्थंकर थे ।
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