Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु)
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उत्तर - व्रतोपवासश्च जपस्तपोपि,
कृपाक्षमाध्यानदयासुर्धर्यः । स्वाध्यायशान्तिप्रशमप्रमोदाः, सिद्धिः समाधिः परिणाशुद्धिः ॥ ६३ ॥ प्रीतिश्च मैत्री करुणापि कान्तिः, पूर्वोक्तभावाः सुखदाः पवित्राः । पर्यायदृष्टयात्मन एत्र चोक्ताः, स्वर्मोक्षहेतोरहृदि धारणीयाः ।। ६४ ।।
अर्थ- ब्रत, उपवास, जप, तप, कृपा, क्षमा, ध्यान, दया, धैर्य, स्वाध्याय, शान्ति, प्रशम, प्रमोद, सिद्धि, समानि, परिणामोंकी शुद्धता, प्रीति, मैत्री करुणा और कान्ति आदि जितने सुख देनेवाले पवित्र भाव हैं वे सब पर्याय दृष्टीसे आत्माके ही कहे जाते हैं और इसीलिये ये सब भाव आत्माका हित करनेवाले हैं । भव्यजीवोंको स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करनेके लिये ये सब भाव अपने हृदयमें धारण करने चाहिए ।
__ भावार्थ-- इस संसारमें जीवोंको जो दुःख होता है वह पर पदार्थोंके निमित्तसे ही होता है तथा जबतक पर पदार्थोका संबंध बना रहता है तबतक इस जीवको बराबर दुःख भोगना पड़ता है। जब यह जीव परभावोंका त्याग कर देता है तब इसके निजके भाव अपनेंआप प्रगट हो जाते हैं । जैसे क्रोध का त्याग कर देने से आत्माका क्षमा गुण प्रगट हो जाता है, मान का त्याग कर देने से आत्माका मार्दव गुण प्रगट हो जाता है, मायाचारीका त्याग कर देनेसे आर्जव गुण प्रगट होता है, लोभका त्याग करनेसे शौच गण प्रगट होता है, मिथ्या भाषणका त्यागकर देनेसे सत्य गुण प्रगट होता है, हिंसाका त्याग कर देने से दया प्रगट होती है, काममोगोंका त्याग कर देनेसे ब्रह्मचर्य गुण प्रगट होता है और अशुभ परिणामोंका त्यागकर देनेसे शुभ वा शुद्ध परिणाम प्रगट हो जाते हैं । ये सब आत्माके निजके गुण हैं और इमीलिए आत्माका हित करनेवाले हैं इसलिए भव्य जीवोंको स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करनेके लिए क्रोधादिक परभावोंका त्याग कर अपने आत्माके गुण प्रमट कर लेने चाहिये क्योंकि आत्माके गुण ही मोक्षके कारण है ।